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[ शा. बा० समुच्चन स्व० - ४ श्लोक-३०-३१
उपसंहरन्नाह
मूलम् - तस्मादवश्यमेष्टव्यं तदूर्ध्वं तुच्छमेव तत् ।
शेयं सज्ज्ञायते तदपरेणाऽपि युक्तिमत् ||३०|| तस्मात् उक्तयुक्तेः, तदूर्ध्वं क्षणस्थितिधर्मणः सच्वादुम् तद् = घटासच्यम्, तुच्छमेव= भावविलक्षणमेव, अवश्यमेष्टव्यम् = अङ्गीकर्तव्यम् | हि निश्चितम् एतद् असत्रम्, ज्ञेयं सद= ज्ञेयस्वभावं सत्, अपरेणाऽपि = अग्रिमज्ञानेनाऽपि ज्ञायते = परिच्छिद्यते, युक्तिमत् न्याय्य मेतत्, विपयसच्चे तज्ज्ञानसंभवात् तत्तुच्छत्वा तुच्छत्वयोः प्रामाण्याऽप्रामाण्ययोरेव प्रयोजकत्वात्, सन्मात्रविषयत्वरूपप्रामाण्याभावेऽपि भ्रमभिन्नत्वरूपस्य तस्याऽक्षयत्वाच्चेति
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निगर्वः । तदेवमसत्त्वस्योत्पादादि व्यवस्थापितम्
अत्राऽनिष्टाऽपत्तिजिहीर्षयाह
मूलम् - नोत्पस्यादेस्तयोरैक्यं तुच्छेतरविशेषतः ।
निवृत्तिभेदतश्चैव वुद्धिभेदाच्च भाव्यताम् ||३१||
नोत्यादेः कारणात् तयोः = सच्चाऽसत्वयोः ऐक्यम् । कुतः ! इत्याह- तुच्छेतरत्वभेदात्, असचं हि तुच्छस्वभावं सत्यं चातुच्छस्वभावमिति । तथा, निवृत्तिभेदतइ चैव=
(घट का प्रसव भाव से विपरीत है )
३० वीं कारिका में प्रसत्त्व के विषय में अब तक के सम्पूर्ण विचारों का उपसंहार करते हुए उनका निष्कर्ष बताया गया है जो इस प्रकार है, उक्त युक्ति के अनुरोध से 'क्षणिक भाव के उत्तरकालमें जो उसका प्रसत्व होता है वह भावात्मक न होकर तुच्छ हो होता है' यह बात अवश्य स्वीकार करनी होगी और यह प्रसत्त्व ज्ञेय स्वभाव होगा । प्रत एव अग्रिम ज्ञानसे उसका निश्चय न्यायप्राप्त है । क्योंकि विषय के रहने पर यदि कोई बाधा न हो तब उसका ज्ञान होता ही है । विषय को तुच्छता और अतुच्छता केवल उसके ज्ञान में प्रामाण्य और प्रप्रामाण्य की प्रयोजक होती है । इस पर यह शङ्का करना कि- 'पूर्वभाव के उत्तरक्षण में प्रसत्त्व मानने पर भाव भी सत् नहीं रह जायगा इसलिए उस भाव का ज्ञान भी प्रमारा नहीं माना जायेगा। क्योंकि सन्मात्रविषयक ज्ञान ही प्रमाण होता है।' ठीक नहीं है। क्योंकि उत्तरक्षण में प्रसव से ग्रस्त होने वाले पूर्वभाव के ज्ञान में सन्मात्र विषयकत्वरूप प्रामाण्य भले न हो किन्तु भ्रम - भिन्नत्वरूप प्रामाण्य होने में कोई बाधा नहीं है। फलत: उपर्युक्त रीति से प्रसव के उत्पत्ति श्रादि की सिद्धि निर्विवाद रूपसे अपरिहार्य है ||३०||
( उत्पत्ति नाश के कारण सत्त्व असत्त्व में ऐक्य प्रसंग नहीं है)
३१ वीं कारिका में प्रसत्त्व की उत्पत्ति मानने पर अनिष्टापत्ति का उद्भावन कर के उसका परिहार किया गया है। कारिकामें प्रनिष्टापत्ति इस प्रकार से प्रस्तुत की गई है कि यदि असत्व का उत्पत्ति और बिनाश माना जायेगा तो उत्पत्तिविनाशशाली सत्य से उसका कोई भेव न रहेगा । क्योंकि दोनों ही उत्पत्तिविनाशशाली हैं तो दोनों के भेव का कोई आधार नहीं हो सकता ।