________________
स्था का टीका और हिन्दी विवेचना ]
[१६६
नेत्थं बोधान्वयाभावे घटते तद्विनिश्चयः ।
माध्यस्थ्यमवलम्ब्येतच्चिन्यता स्वयमेव तु ।।११०॥ इत्यम्-उक्तप्रकारेण, बोधान्वयाभावे सति तविनिश्चयः तत्तथास्वाभाष्यविनिश्चयः, न घटते । एतत्-उक्तम् माध्यस्थ्यमवलम्ब्य स्वयमेव तु चिन्त्यताम् , नानाकारानुविद्धस्यैकोपयोगस्यानुभूतेरन्यथानुपपत्तेः ॥११०।। पर: शंकते
अग्न्याविज्ञानमेवेह न धूमज्ञानतां यतः ।
बजस्याकारभेदेन कुतो बोषान्वयस्ततः १ ॥१११॥ इह-तत्तथाभावग्रहम्थले अग्न्यादिज्ञानमेवाकारभेदेन धूमज्ञानतां यतो न व्रजति, अन्यथा नीलपीतज्ञानयोरप्यैक्यप्रसङ्गात् , तत् कुतो बोधान्वयः १ इति ।।१११॥ अत्रोत्तरम्होता है और विषम पस्किार पद सभी पदार्थ त्वय-विच्छेद पूर्वक क्षणिक होते हैं । अर्थात् भाव के उत्पत्ति क्षण के बाद भाव का किसी भी रूप में प्रन्यय नहीं होता है। प्रत: बौद्ध मत में विकल्प का ऐसा समर्थन नहीं हो सकता कि जिसे विप्रतिषेध का संपर्क न हो अर्थात् जो प्रत्याख्यात न हो सके। क्योंकि स्पष्ट है कि पूर्वानुभवाधीन संस्कार के विना स्मरणात्मक निश्चय नहीं हो सकता जो गुण-जाति-नाम प्रादि के स्मरण रूप में सधिकल्पक प्रत्यक्ष के लिये अपेक्षित है और क्षणमनवाद में पूर्वानुभवजन्य संस्कार स्मरणात्मक निश्चय के उत्पत्तिपर्यन्त प्रस्थित न होने से उस का जनक नहीं हो सकता ।।१०६॥
(बोधान्वय न होने पर जन्य-जनक भाव को अनुपपत्ति) ११० वी कारिका में प्रस्तुत विचार का उपसंहार किया गया है। प्रर्थ इस प्रकार है-प्रन्यकार का कहना है कि बौद्ध को तटस्थ होकर इस बात का स्वयं चिन्तन करना चाहिये कि भावमात्र के क्षणिकत्व पक्ष में जब उत्तरज्ञान में पूर्व ज्ञान का बोधरूप में अन्वय नहीं हो सकता तब उत्तर ज्ञान में पूर्वज्ञानजन्यस्वभावता का और पूर्वज्ञान में उत्तरज्ञान जनक स्वभावता का निश्चय कथमपि नहीं हो सकता क्योंकि उक्त स्वभाव पूर्वज्ञान और उत्तरशान से घटित है, प्रतः उक्त स्वभावशान उन दोनों के सह ज्ञाम होने पर ही हो सकता है और वह उक्त ज्ञानों में किसी भी प्रकार का अन्वयन होने से संभव नहीं है । व्याख्याकार ने इस वक्तव्य को स्पष्ट करते हुए यह कहा है कि अनेक प्राकारों से अनुविद्ध एक उपयोग का अनुमब होता हैं । जैसे 'ग्रहमग्निं जानामि' इस प्रकार अग्निज्ञान के अनुभव के बाद 'धूममहं जानामि' इस प्रकार धूमज्ञान का अनुभव होता है । इन दोनों अनुमकों में ज्ञानांश में समानता प्रतीत होती है । यह समानता समो हो सकती है जब दोनों ज्ञान किसी एक बोष की ही विभिन्न अवस्थाएँ हो। ऐसा माने बिना वोनों में प्रत्यन्त भेद होने के नाते वोनों में समानता को प्रतीति का कोई प्राघार न होने से उस प्रतोतिको उत्पत्ति नसे हो सकती है ।।११०॥ - १११ वीं कारिका में 'क्रमिक मानों में एक बोध को अनुगति होती है। इस विषय में बौद्ध को शंका प्रस्तुत की गई है--