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[शा-वा समुच्चय स्त०४-श्लो० १०६
एवं च विकल्पोऽपि न घटत इत्याह
विकल्पोऽपि तथान्यायाधज्यते न श्वनीदृशः।
तत्संस्कारप्रसूतत्वात्क्षणिकत्याच्च सर्वथा ॥१०९॥ विकल्पोऽपि निश्चयोऽपि, तथान्यायात्-उक्तन्यायात , तत्संस्कारप्रसूतत्वातपूर्वोत्तरसंचित्संस्कारजत्वात् , सर्वथा क्षणिकश्वाच्चअन्वया(१य)विच्छेदेन क्षणिकत्वाम्यु. पगमाञ्च, अनीदृशः असंमृष्टविप्रतिषेधः, न हि-नैव युज्यते । न हि पूर्वानुभृतसंस्कारं विना म्मरणात्मा निश्चयः । न च क्षणभंगे प्राच्यसंस्कारावस्थानमिति ॥१०६।। उपसंहरबाद
प्रन्ययासिद्धिशून्य की प्रतियोगी कुक्षिका माता है। आजायज्ञान के लिये प्रतियोगी का प्रत्यक्ष ज्ञान प्रपेक्षित नहीं होता । प्रतः कार्य के न रहने पर भी कार्य का स्मरणात्मक ज्ञान होकर कारण में कार्यानरूपित अन्ययासिद्धिशून्यत्व का ज्ञान हो सकता है। इसी प्रकार कार्यनियतपूर्वतित्व कार्यव्यापकत्वरूप है और कार्यव्यापकत्व कार्याऽव्यवहितपूर्वक्षण में कार्याधिकरणवृत्ति-प्रभाव-प्रतियोगित्वाभावरूप है। इसलिये इस को भी प्रतियोगिकुक्षी में कार्य का प्रधेश है । अत: इस के ज्ञान के लिये भी कार्यप्रत्यक्ष की आवश्यकता न होने से कार्य को विद्यमानता अपेक्षित नहीं है । अतः कारण-दर्शनकाल में कार्य एवं कार्य का प्रत्यक्ष' म होने पर मो इस कारणता के ज्ञान में मी कार्य-कारण के अन्धयअतिरेक का ज्ञान कारण होता है और ये दोनों ही ज्ञान प्रत्यक्षात्मक होने से कार्य-कारण दोनों को सहसत्ता को अपेक्षा रखते हैं। यदि इस पर भी बौद्ध यह कहें कि-'कारणता शक्तिरूप है अत: उस के स्वरूप में कार्य-कारण किसो का प्रवेश नहीं है । अत एव उस के ग्रहण में कार्य-कारण का प्रत्यक्ष प्रथया कार्य-कारण को विद्यमानता अपेक्षित नहीं है, प्रतः कारण के स्वरूपमात्रग्राहक ज्ञान से उस का ग्रहण हो सकता है'-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि शक्तिरूप कारणता प्रनमेय होती है । अतः इस पक्ष में 'कारणता का ग्रह प्रत्यक्ष और अनुपलम्म से होता है' इस बौद्धमान्यता की क्षति अनिवाय है ।।१०८॥ १०६ वी कारिका में विशिष्ट निश्चय की दुर्घटता बताई गई है
[अन्वय के अभाव में विकल्प की अनुपपत्ति ] कारिका का अर्थ इस प्रकार है-भावमात्र की क्षणिकता के पक्ष में बौद्ध संमत विकल्प विशिष्टनिश्चय भी नहीं हो सकता है, क्योंकि बौद्धमत में विशिष्टनिश्चय की प्रक्रिया इस प्रकार है कि सर्वप्रथम वस्तु का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होता है। वह प्रत्यक्ष वस्तु के स्वरूपमात्र को ग्रहण करता है। उस में, वस्तु में गुण-जाति नाम आदि का मान नहीं होता है। उस के बाद उस निर्विकल्प से महोत वस्तु में गुण-जाति नाम श्रादि के सम्बन्ध का कल्पनात्मक विशिष्ट कान होता है। यह
। यह ज्ञान तब हो होता है जब उस वस्तु के गुण-जानि-नाम प्रादि पूर्वानभवजन्य संस्कार रक्षा है, क्योंकि जिस पुरुष को यह संस्कार नहीं होता उसे वस्तु का निधि कल्पक प्रत्यक्ष होकर ही रह जाता है किन्तु इसके बाद उसका सविकल्पक प्रत्यक्ष नहीं होता है। कारण यह कि यह विशिष्ट निश्चय पूर्व संचित-पूर्वानुभव पर उत्तरसंस्कार-उस अनुभव के उत्तर में उस अनुभव से उत्पन्न संस्कार, इन दो कारणों से उत्पन्न