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[ शा. वा. समुच्चय स्त. ४ श्लो० ११२
तदाकारपरित्यागात्तस्याकारान्तरस्थितिः ।
बोधान्वयः प्रदीर्धकाध्यवसायप्रवत्तकः ॥११२।। सदाकारपरित्यागात् अग्न्याद्याकारतिरोभायात् तस्य बोधस्य आकारान्तरस्थितिः धृमाद्याकारणाविर्भावः योधावयः सर्वथाऽसद्धावविरोधात । स च प्रदीर्घ प्रवाहवान य एकः एकसंततिमान अध्यवसायस्तस्मवतका तनिमित्तम् ; नील-पीताकारयोर्मिनसंततिगनत्वेन विरोधेऽप्यग्नि-धूमाद्याकागणामेकसननिगतत्वेनाविरोधात , एकत्र बसंविदि ग्राह्यग्राहकाकारवत् । न च समानकालीनाकारभेदेनाकारवतोऽभेदेऽपि क्रमिकाकारभेदात् तन्दः,
(नोलज्ञान-पोतज्ञान के ऐक्य को प्राशंका) । बौद्ध का यह कहना है कि- 'यहां कारणज्ञान से कार्यज्ञान के उत्पत्तिस्थल में अग्निज्ञान रूप कारणज्ञान प्राकारभेद से घमशान रूप कार्य बन जाता है-यह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर नीलज्ञान और पोतमान में भी ऐक्य हो जायगा। क्योंकि जहां नीलज्ञान के बाद पीतज्ञान को उत्पत्ति होती है वहां पोतज्ञान कार्यभूत ज्ञान है और नोलज्ञान उस का समनन्तर कारण मूत ज्ञान है अत एव पीतजान भी उक्त रोति से प्राकारभेद से नोलज्ञान माना जा सकेगा । यह ऐक्य किसी को मान्य नहीं है प्रतः कार्यज्ञान में कारणज्ञान का बोधरूप से अन्धय कैसे सिद्ध हो सकता है ?. अर्थात् जब एक स्थान में कार्यशान को कारणजान परिणाम नहीं माना गया तो उसी रीति से अन्यत्र सभी स्थानों में कार्यभान को कारणज्ञान का परिणाम न मानना सम्मव हो सकता है, प्रतः कार्यज्ञान में कारणज्ञान का बोधात्मना अन्यय प्रसिद्ध है ।।१११॥
[नोलज्ञान-पीतज्ञान एक्यापत्ति का परिहार] ११२ बों कारिका में बौद्ध को उक्त शंका का समाधान किया गया है -
बौद्ध को पूर्व प्राकार का परित्याग कर अन्य प्राकार से प्राविर्भाव मानना प्रावश्यक है। क्योंकि ऐसा न मानने पर अग्निज्ञान के बाद जो धमझान को उत्पत्ति होती है वह प्रसत की ही उत्पत्ति मानी जायगी, क्योंकि घुमज्ञान का किसी भी रूप में उस से पूर्व प्रस्तित्व सिद्ध नहीं होता पौर सर्वथा असत् की उत्पत्ति विरोधग्रस्त है-यह कहा जा चूका है।
इस सम्बन्ध में जो बौद्ध को प्रोर से नीलज्ञान और पीतज्ञान के ऐक्य का प्रापादान किया गया है वह ठीक नहीं है क्योंकि बोध का प्रत्यय एक सन्तान में प्रवहमान अध्ययसाय का हो प्रवर्तक होता है। नोलाकार-पीताकार अध्यवसाय भिन्न सन्तति गत है अतः उन का प्रवर्तक किसी एक बोधाचय के अधीन नहीं है। प्रत एव पीतज्ञान के पूर्व नीलाकार में परिणतबोध का पूर्व नोलाकार परित्यागपूर्वक पीताकाररूप में परिणाम नहीं माना जा सकता। किन्तु अग्निकारज्ञान और धमाकारजान एक सन्तानगत है प्रत एव उन में एक बोध का प्रन्यय मानने में कोई विरोध नहीं होता। यह अविरोध स्वग्राही एक ज्ञान के ग्राह्य और ग्राहक के प्राकार के दृष्टान्त से अवगत किया जा सकता है। कहने का प्राशय यह है कि जैसे ग्राह्य प्राकार और प्राहकाकार में अन्यत्र स भेद होता है किन्तु ज्ञान के अपने स्वरूप में ग्राह्याकार ओर ग्राहकाकार में भेद नहीं होता क्योकि एक ही ज्ञान स्वप्रकाश होने से ग्राह्याकार भी होता है, ग्राहकाकार भी होता है। उसी प्रकार भिन्न