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स्वा० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
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यत्तु - स्मृत्युपनीतेऽपि नामादाविन्द्रियाप्रवृत्तेर्न नामादिविशिष्टार्थग्राहिण्यक्षजा मतिः' इत्युक्तम्-तलामात्रम् अर्थात्मकस्य नामवाच्यतादिधर्मस्य विशिष्टक्षयोपशमसव्यपेक्षयाऽक्षधिया प्रतिपत्त्यभ्युपगमात् । तद्वाच्यताप्रतिपत्तिर्मतिः श्रुतं वा इत्यन्यदेतत् ।
न च 'विशेषणविशेष्यभावस्यानवस्थानाद् न वस्तुनो विशिष्टप्रतीतिः इत्यप्युक्तं युक्तम्, अनेकधर्मकलापाक्रान्तस्य वस्तुनो विशिष्टसामग्रीप्रमवप्रतिपत्या प्रतिनियतधर्मविशिष्टतया ग्रहणात् । न चाग्टग्दर्शनेऽशेषधर्माध्यासितवस्तुस्वरूपप्रतिभासः कस्यचित् कथंचित् कयाचित्प्रतिपश्या यथाक्षयोपशमं ग्रहणात् । एतेनातीतविशेषणादिग्रहणेऽतिप्रसङ्गः परास्तः, अन्यर्थकस्तम्भ परिणत्या पन्नैक पर भारग्रहणप्रवृत्ताक्षस्याऽपरपरमाणुग्रहणेऽपि सकलपदार्थग्रहणप्रसङ्गस्य दुष्परिहरत्वात् 1
से गो व्यक्ति की उपस्थिति ही नहीं हो सकती। किन्तु फिर मो यह शाब्दबोध श्रोता को लायो जाने वाली गो व्यक्ति को लाने में प्रवर्तक होता है उसका खंडन न हो सकेगा ।
नावाच्यता श्रादि धर्मों का इन्द्रियजन्य ज्ञान से ग्रहण शक्य )
इस सन्दर्भ में जो बौद्ध की ओर से यह कहा गया था कि 'नश्मादि यद्यपि स्मरण द्वारा समिति होता है, किन्तु वह इन्द्रिय के अयोग्य होता है, अत एव उसके ग्रहण में इन्द्रिय की प्रवृत्ति नहीं हो सकती । प्रजः इन्द्रियजन्य ज्ञान नामादि विशिष्ट अयं का ग्राहक नहीं हो सकता - यह कथन भो युक्तिहोन प्रलाप है, क्योंकि नामवाच्यता पादि धर्म अर्थात्मक धर्मो से प्रभिन्न है, अतः अयं इन्द्रिययोग्य होने से वे धर्म भो इन्द्रिययोग्य है, अत एव उस अंश में क्षयोपशम का संविधान होने पर इन्द्रियजन्यज्ञान से उसका ग्रहण हो सकता है। किन्तु इन्द्रिय से जो नामवाच्यता का ज्ञान होता है। वह क्या मतिज्ञान रूप है अथवा श्रुतज्ञान रूप है ? इसका विचार इस सन्दर्भ में उपयोगी नहीं है । [नियत धर्म से विशिष्ट रूप में वस्तु का ग्रहण शक्य है]
बौद्ध की ओर से जो एक बात यह कही गई यी कि 'विशेषरण- विशेष्य भाव अध्यवस्थित होता है प्रोर वस्तु व्यवस्थित होती है । अतः वस्तु की विशिष्ट प्रतीति नहीं हो सकती तो यह कथन मी युक्त नहीं है क्योंकि वस्तुं विभिन्न धर्मो से युक्त है इसलिये विशिष्ट ज्ञान की सामग्री से उत्पन्न होनेवाले बोध से एक एक नियत धर्म से विशिष्ट रूप में उसका ग्रहण होता है। ऐसा मानने पर यह शंका कि-"यदि वस्तु अपने धर्मों से विशिष्ट होती है तो वस्तुप्राही प्रदग्दर्शन यानी सामान्य ज्ञान में सम्पूर्ण धर्मों का प्रतिमास होना चाहिये" उचित नहीं हो सकती, क्योंकि तत्तमंविशिष्ट रूप में वस्तु के ग्रहण के लिये तत्तद्वमांश में ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा होती है । श्रतः किसी वस्तु का किसी विशेषधर्म द्वारा हो किसी प्रतिपत्ति से ग्रहण होता है । सब प्रतिपत्तियों
में
वस्तु के सम्पूर्ण धर्मो का प्रहरण इसलिये नहीं होता कि छद्मस्थ अवस्था यानी संसार दशा में सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता । इसीलिये यह शंका भो कि 'वस्तु जब अनेक धर्मों से विशिष्ट होती है तो उसके धर्मो के मध्य में प्रतीत अनागत धर्म भी श्राते हैं । श्रतः बस्तु ज्ञान में उन धर्मों का मो विशेषणविषया ग्रहण होना चाहिये' नहीं हो सकती क्योंकि छपस्थ के वस्तुग्रहणकाल में प्रतीत प्रनागत धर्म रूप विशेषणों के ग्राहक क्षयोपशम का प्रभाव होता है ।