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[ शा. वा० समुच्चय स्त०५-रलो० ११२
रूप्यानिश्चयेनानुमानस्यत्र न प्रवृत्तिरित्युक्तत्वात् । न च तदपेक्षं दर्शनमेव प्रमाणम् , स्वत एवं तस्याप्रमाणत्वात, विकल्पस्यापि विकल्पान्तरापेक्षया प्रमाणत्वेऽनवस्थाया दुष्परिहरवात्वादिति वाच्यम् , सम्यग्विकल्पस्य स्वत एव प्रमाणत्वात , दर्शनस्याऽगृहीतभाव्यर्थप्रवर्तकत्वेऽतिप्रसङ्गाद , अन्यथा शाब्दमपि सामान्यमात्रविषय विशेषे प्रवृत्ति विधास्यति, इति मीमांसकमतनिषेध्यं स्यात् ।। क्योंकि सविकल्पक प्रत्यक्ष भी भ्रम का निवर्तक होता है । जैसे, यह देखा जाता है कि शुक्ति-रज्जु प्रादि में होने वाले रजत-सर्प आदि भ्रम को निवृत्ति शुक्ति प्रौर रज्जु के सबिकल्पक प्रत्यक्ष से होती है। यदि इस पर बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि विकल्प ज्ञान प्रमाण होने पर भी अनुमान से बह पृथक नहीं है, क्योंकि प्रनभ्यास दशा में अर्थात मावमात्र क्षणिक होता है इस संस्कार की प्रभावदशा में अनुमान माव के क्षणिकत्व में प्रमाण होता है और अभ्यास दशा में यानी 'भावमात्र क्षणिक होता है-इस संस्कार दशा में अर्थ का दशन हो उस के क्षणिकत्व में प्रमाण होता है और उक्त दो दशा से प्रधिक कोई तीसरी दशा नहीं है जिस में विकल्प स्वतन्त्र रूप से प्रमाण हो सके।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि विकल्प को प्रमाण न मानने पर अनुमान के अंगमूत पक्षसत्य सपक्षसस्व और विपक्षाऽसत्त्व का निश्चय न हो सकने से अनुमान को प्रवृत्ति हो नहीं हो सकती है-यह कहा जा चूका है।
[ज्ञानान्तर के संवाद की अपेक्षा नियत नहीं होती] यदि पुन: बौद्ध को और से यह कहा जाय कि-विकल्प-सापेक्ष दर्शन ही प्रमाण है, दर्शन स्वत: प्रमाण नहीं है । किन्तु विकल्प प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि किसी भी ज्ञान के प्रमाण होने के लिये ज्ञानान्तर का संवाद अपेक्षित होता है। दर्शन में विकल्प का संवाद होने से वह प्रमाण हो सकता है, किन्तु विकल्प में ज्ञानान्तर का संवाद न होने से बह प्रमाण नहीं हो सकता। यदि उसे भो प्रत्य विकल्प को अपेक्षा प्रमाण माना जायगा तो मनवस्था का परिहार दुष्कर होगा ।" किन्तु बौद्ध का यह कयन भी ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यक विकल्प को अर्थात् जिस विकल्प में अप्रामाण्य की शका का उदय सम्भावित नहीं होता वह स्वत: हो प्रमाण होता है-उस के प्रामाण्य के लिये संवादी ज्ञानास्तर की अपेक्षा नहीं होती। इस कथन में यहां ध्यान देना जरूरी है कि गहीतार्थ को प्रापकता का प्रयोजक गृहोतार्थ में प्रवकता' ही प्रामाण्य के प्रस्युपगम का बीज है यह पहले कहा जा चुका है। किन्त बौद्ध मत में वर्शन अगहीत यानी अपने प्रविषयभत उत्तरकाल माबो अर्थ में ही प्रवर्तक होगा, क्योंकि प्रवृत्तिकाल में दर्शन का विषयभूत अर्थ नहीं रहता और ऐसा मानने पर दर्शन द्वारा अगहीत उत्तरकाल मावो किसी अर्थविशेष में ही प्रवृत्ति न होकर अर्थसामान्य में प्रवृति का प्रतिप्रसंग होगा, क्योंकि दर्शन द्वारा प्रमहोतस्व उत्तरकाल भावि सभी प्रों में समान है ।
दूसरी बात यह है कि यदि वर्शन को अपने प्रविषय भूत उत्तरकालभावी अर्थ में प्रवर्तक माना जायगा तो मोमांसक का जो यह मत है कि 'शब्द को शक्ति व्यक्तिविशेष में न होकर लाघव से सामान्य मात्र में ही होती है। प्रतः शम्नजन्य ज्ञान सामान्यमाविषयक होता है किन्तु वह अपने प्रविषयभूत विशेष में भी प्रवर्तक होता है' जैसे 'गामानय' इस वाश्य से उत्पन्न बोध मोमांसक मत में लाये जाने वाले गो को विषय नहीं करता क्योंकि 'गो' पद को गोव्यक्ति में शक्ति न होने