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भ्या० का टीका और हिन्दी विवेचना ]
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प्रामाण्यम् , प्रकृतविकपेऽपि समानत्वात् । न च गृहीतमादित्वाद् विकल्पो न प्रमाणम् , क्षणक्ष यानुमानस्याप्यप्रामाण्यप्रसक्तेः । अनिर्णीतमनुमेयं निश्चिन्वत् प्रमाणं यअनुमानम् , तनिश्चितं नीलं निश्चिन्धन विकल्पोऽपि किं न तादृशः ? । अथ समारोप व्यवच्छेदकरणादनुमानं प्रमाणम् , तर्हि विकल्पोऽपि तत एव किन तथा ! शुक्तिका-रजवादिषु रजतसादिममारोपाणां तथाभूतविकल्पाद् निवृत्तिदर्शनात् । अथ विकल्पस्य प्रामाण्येऽपि नानुमानबहिर्भावः, अनभ्यामदशायां बनुमानं प्रमाणम् ; अभ्यासदशायां तु दर्शनमेव, न च तृतीया दशास्ति यम्मा विकल्पः ग्वातन्त्रण प्रमाण माश्मनुभवेदिति चेत? न, विकल्पं विना ज्ञान होता है किन्तु उससे उत्पन्न होने वाला अनुमानात्मक अध्यवसाय सामान्य रूप से विशेष को ग्रहण करता है। इनमें विशेष वास्तव होता है और सामान्य कल्पित होता है। अत: कल्पित मात्र का ग्राहक न होकर कपिल और वास्तव के संमिलित स्वरूप का ग्राहक होने से यह प्रमाण होता है। यह ज्ञातस्य है कि व्याख्याकार ने इस संदर्भ में प्रमानसेनहोत होने वाले वास्तव विशेष कोही बौद्ध के दृष्टिकोण से दृश्य शब्द से व्यवहृत किया है और उसको वास्तविकता स्वल क्षरण शब्द से सूचित की है"-किन्तु बौद्ध धारा अनुमानप्रामाण्य का उक्त रीति से समर्थन ठीक नहीं है । क्योंकि वास्तव और विकल्प्य अथों का एकोकरण जैसे अनुमान में होता है वैसे प्रकृतबिकल्प-सविकल्प प्रत्यक्ष में भी समान है। तात्पर्य यह है कि सविकल्पक प्रत्यक्ष, वासना जन्य होने से वासना के विषयभूत सामान्यादि कल्पिता और विद्यमान अर्थक्षण से जन्य होने से वास्तव अर्थ क्षरण, इन योगों
कृत रूप में ग्रहण करता है। अत: जिस निमित्त से अनुमान को प्रमाण कहा गया है यह निमित सविकल्पक प्रत्यक्ष में भी विद्यमान है अत: अनुमान को प्रमाण प्रौर सविकल्पफ को अप्रमाण कहना उचित नहीं हो सकता ।
(गृहीतग्राही होने से विकल्प प्रमाण यह नहीं कहा जा सकता) धौद्ध की ओर से पुनः यह कहा आय कि-'अनुमान और सविकल्पक प्रत्यक्ष दोनों में साम्य होने पर भी दोनों में मेव यह है कि अनुमान धासमाजन्य न होकर व्यारिसज्ञान और पक्षधर्मताशान जन्य होने से गही तग्राहो नहीं होता, किन्तु सविकल्पक-प्रत्यक्ष वासनाजन्य होने से गृहीतवाही होता है क्योंकि बासना पूर्वगहीत अर्थ को ही प्रस्तुत करती है अतः सविकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकता । तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ग्रहीतग्राही होने से यदि सविकल्पक प्रत्यक्ष को भप्रमाण माना जायगा तो क्षणिकत्वानुमान मी प्रप्रमाण हो जायगा, क्योंकि वह भी मध्यक्ष से ग्रहीत क्षणिकव का प्राहक होता है। यदि उस के उत्तर में यह कहा जाय कि क्षणिका अध्यक्ष से गहोत होने पर मो अनिश्चित रहता है। प्रत: अनिश्चित अनुमेय का निश्चायक होने से अनुमान तो प्रमाण हो सकता है किन्तु सविकल्पक-प्रत्यक्ष वासना से उपस्थापित पूर्वनिश्चित अर्थ का निश्चायक होने से अनिश्चित का निश्चायक न होने के कारण प्रमाण नहीं हो सकता ।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विकल्प भो वासना से अनुपस्थापित, पूर्व में अनिश्चित, नवीन नीलक्षण का निश्चायक होता है अतः जस में मी अनिश्चितनिश्चायकत्व होने से इस के भी प्रामाण्य का अपहरण नहीं किया जा सकता।
इस पर बौद्ध की प्रोर से यदि यह कहा आय कि-'प्रनुमान समारोप यानी भ्रम का मित होने से प्रमाण होता है तो यह कहकर भो सविकल्पप्रत्यक्ष के प्रामाण्य का अपहरण नहीं हो सकता