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[शा वा समुच्चय स्त०४-श्लोक ११३
यदपि 'मानस्येव विकल्पमतिः' इत्यभिहितम् । तदप्यसत् , स्तम्भादिप्रतिभासस्य मानसत्वे विकल्पान्तरतो निवृत्तिप्रसङ्गात् । न चैवमस्ति, क्षणक्षयित्वमनुमानाद् निश्चिन्यतोऽश्वादिकं वा विकल्पयतस्तदेवास्य प्रतिभासम्य संवेदनात् ।
यदपि 'जात्यादेः स्वरूपानवमासनात् तद्विशिष्टार्थधीरयुक्ता' इति गदितम् तदापि नियुक्तिकम्। स्वसंवेदनवन सदृशपरिणामस्य प्रमीयमाणत्वेन मत्यत्वात् । एकान्तभेदाभेद. पक्षस्यानिष्टः, 'त एव विशेषाः कथञ्चित् परस्पर समानपरिणतिभाजः' इत्यस्मदभ्युपगमे दोषाभावात् , चित्रकविज्ञानवत् समाना ऽसमान परिणत्योरेकत्वाऽविरोधात् । तस्मात , 'सविकल्पकमेव प्रमाणम्' इति व्यवस्थितम् । ततः कथं न बोधान्वयोऽर्थान्वयो बा ? इति परिभाषनीयं रहसि ॥ किसी वस्तु के ग्रहणकाल में उसको समाता का गहण नहीं होता यह सर्वसम्मत है । अत: इस की उपपत्ति के लिये उक्त प्रकार के हेतु की कल्पना सभी को करनी होगी क्योंकि एसा न करने पर एक स्तम्भ के रूप में परिणत परमाणु समष्टि के ग्रहण में प्रवृत्त चक्षु द्वारा सन्निहित दूसरे परमाणु प्रो का ग्रहण होने पर भी जो स्तम्म के सम्पूर्ण माग का ग्रहण नहीं होता है उसकी उपपत्ति नहीं हो सकती । अपितु एक भाग के ग्रहण में प्रवृत्त चक्षु से वस्तु के सम्पूर्ण भाग के ग्रहण की मापत्ति होगी।
(सविकल्प प्रत्यक्ष मानसज्ञान नहीं है) बौद्ध को प्रोर से जो यह कहा गया था कि-'विकल्पमति यानी सविकल्प प्रत्यक्ष इन्द्रियार्थ संनिकर्ष जन्य न होकर मानस होता है-वह भो ठीक नहीं है, क्योंकि स्तम्भादि के विकल्प को यदि मानस माना जायगा तो प्रन्य विकल्प से उसको-निवत्ति हो जायगी कि दो मानस विकल्पों का युगपद् अस्तित्व नहीं होता जैसे मन के मनोग्राह्य विषय सुखदुखादि रूप से ही गृहीत होते हैं, अतः कम से हो वस्तु का ग्रहण करना मन का स्वभाव होता है । 'विकल्पान्तर से स्तम्मादि के विकल्प को नियत्ति हो जाती है। यह माना भी नहीं जा सकता क्योंकि अनुमान से क्षणिकत्व के निश्चयकाल में भी एवं प्रश्नावि के विकल्पकाल में भो स्तम्भ के विकल्प का संवेदन होता है । अत: उस काल में स्तम्मविकल्प का अस्तित्व सिद्ध है।
1 [वे हो विशेष परस्पर कुछ समान परिगतिवाले भी है]
"जास्यादि का व्यक्ति से भिन्न कोई स्वरूप विकल्पात्मकबुद्धि में प्रयभासित नहीं होता, इसलिये विकल्पबुद्धि को जात्यादि विशिष्ट प्रर्य विषयक मानना भी युक्तिसंगत नहीं है ।' यह कथन मी असंगत है क्योंकि जैसे स्य के प्रमात्मक संवेदन से स्व यानी स्वलक्षण बस्तु सत्य होगी उसी प्रकार सहशपरिणाम के प्रमात्मक ज्ञान से सदृश परिणाम रूप जाति का भी सत्यत्व मनिवार्य है। यदि यह कहा आप कि-"स्वके सत्य होने पर मो के सहश परिणामको सत्य नहीं माना जा सकता क्योंकि स्व का परिणाम स्व से भिन्न है प्रत एव स्व को सत्यता का दृष्टान्त उसको सत्यता का साधक नहीं हो सकता." तो यह ठीक नहीं है क्योंकि परिणाम में परिणामो का एकान्तमेद या एकान्ता:मेव पक्ष अनिष्ट है-हमारा इष्ट यह है कि विशेष व्यक्ति हो कयश्चित् परस्पर में समान परिणाम को