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[शा.वा. समुच्चय स्त. ४-श्लो०३६
अपि च 'जातों न सत्ता' इत्यत्रापि न सुष्टु समाधानम् , 'जानो समवायेन सत्ता न वा' इत्यादिप्रश्नाऽनिवृत्तेः।
अथात्र सप्तम्यथों निरूपितत्वं समवेतत्वं च, तथा च 'जातिनिरूपितत्वाभाववत्समवेतत्ववती सत्ता' इति बोधः, अन्यथा 'जातियटयोन सत्ता इत्यादी का गतिः ? सत्ताभावस्यो. भयत्वपर्याप्त्यधिकरणाऽवृत्तित्वात् , उभयत्वाधिकरणत्तिन्वान्वये च 'पृथिवी-तद्भिन्नयोर्न द्रव्य
(जाति में समवायसम्बन्ध से सत्ता का मंशय तदवस्थ) इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि 'भूतले न घट: इस वाक्य से प्रथमान्तार्थमुख्यविशेष्यक ही सोध माना जायगा तो 'वक्षे न संयोगः' इस वाक्य से भी संयोग में वक्षवृत्तित्व के अभाव का हो जो मानना पडेता पलत नह ..जय प्रापा हो जायेगा । क्योंकि संयोग में वृक्षवत्तित्व विद्यमान है और वृत्तित्व ध्यायत्ति होता है इसलिए संयोगमें वृक्षवृत्तित्वाभाव नहीं रहता । और, जब संयोगामाय में वृक्षवृत्तित्व का अन्वय मानेंगे तब 'वृक्षे न संयोगः' इस वाक्य में प्रामाण्य को अनुपपत्ति न होगी क्योंकि वृक्षरूप अवययी की अभिन्नता एवं संयोग और संयोगाभाव में वृक्ष के विभिन्न वेश को वृत्तिता को लेकर वृक्षे संयोगः' और 'वृक्षेन संयोगः' इन दोनों प्रामाणिक व्यवहारों को उपपत्ति हो सकती है । यह बात उपा० यशोविजयनिर्मित नयरहस्य नामक प्रन्थ में विशेष स्पष्ट की गई है।
यह भी द्रष्टव्य है कि 'जातो न सता' इस स्थल में जो नयायिक ने समाधान किया वह मी समोचीन नहीं है। क्योंकि उस वाक्य से उन्होंने सत्ता में एकार्थसमवायादि भिन्न सम्बन्धावच्छिन्न जातिवृत्तित्वाभाव का रोष माना । उस बोध से सत्तामें एकार्थसमवायाविभिन्न सम्बन्ध से जातिवृत्तित्व को शङ्का को अर्थात् एकार्थसमयायादिभिन्न सम्बन्ध से 'जाती सत्ता न' इस संशय की निवृत्ति हो सकती है किन्तु "जाती समवायेन सत्ता न वा'' इस सशंप की निवृत्ति न होगी, क्योंकि वह संशय समवायसम्बन्धावच्छिन्न पत्तितात्वरूपसे समवायसम्बन्धावच्छिन्नत्तित्वको विषय करता है। इमलिए इस संशय के प्रति समवश्यसम्बन्धावच्छिन्न वत्तितात्वाच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव का निश्चय ही प्रतिबन्धक हो सकता है न कि एकार्थसमवायादिभिन्नसम्बन्धायच्छिन्नवृत्तितात्वाविनाऽभाव का निश्चय । क्योंकि तद्वच्छिन्न प्रकारताक वृद्धि में तद्धर्मायन्टिन प्रतियोगिताकामावनिश्चय हो प्रतिबन्धक होता है । अतः "जातो न सत्ता'' इस मिश्य से "जाती समवायेन सत्ता न वा" इस संशय की निवृत्ति का उपपादन प्रशश्य होगा।
(सप्तमी का अर्थ निरूपितत्व और समवेतत्व-नव्यपरिष्कार) यदि नैयायिक को प्रोर से यह कहा जाए कि 'जातो न सत्ता इस वाक्यमें सप्तमी के यो प्रर्थ है, निरूपितत्व और समवेतश्व । इन दोनों में से निरूपितत्व का नअर्थप्रभाव के साथ अन्वय होता है
और प्रभाव का समवेतत्व के साथ अन्वय होता है तथा समवेतत्व का सत्ता में अन्यय होता है इस प्रकार उक्त वाक्य से 'जातिनिरूपितत्वाभायवत्समवेतत्यवती सत्ता ऐसा बोष होता है। इस बोध के होने में कोई बाधा नहीं हैं क्योंकि जातिनिरूपितत्वाभाववत् त्यसमवेतत्यादि सत्ता में है। यदि यह व्यवस्था न मान कर सत्ताभावमें हो जातिनिरूपितत्व का प्रत्यय माना जायेगा तो 'जाति घट्यो सता' इस स्थल में शाब्दबोध को उपपत्ति न हो सकेगी। क्योंकि सत्ता में घरवृत्तित्व रहने के कारण जाति