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स्या का टीका-हिन्दी विवेचना !
मापत्ति होगी। क्योंकि घटपद और मस्ति पब में समानवचनकत्व का कोई नियामक न होगा। यदि 'गगनमस्ति' इस वाक्य में गगन प्रवृत्ति पदायें होने से प्रस् धातुका प्राचयत्व अर्थ न मानकर 'कालसम्बन्ध' रूप ही अर्थ माना जाय, तो भूतले घटो नास्ति' इस वाक्य में सप्तमी का अवच्छिन्नत्व अर्थ स्वीकार कर कालसम्बन्ध रूप अस् धात्वर्थ में इसका प्रन्वय होगा। 'घटे मेयत्वं अस्ति' इस वाक्य में तो सप्तमी का आधेयत्व ही अर्थ मानना उचित हो सकता है क्योंकि मेयत्व में कालसम्बन्ध व्याप्यवृत्ति होता है। अत एव उसमें अवच्छिन्नत्व बाधित हो जाता है । प्रवच्छिन्नत्व रुप सप्तम्पर्य का बाध होने पर ही सप्तमी का वृत्तित्व अर्थ मानना उचित होगा । जहां अवच्छिन्नत्वरूप प्रथं का बाध नहीं है वहां अवच्छिन्नत्वरूप अर्थ ही करना होगा । अन्यथा, सर्वत्र सप्तमी का वृत्तित्वार्थ मानकर यदि उसका प्रथमान्त अर्थ में अन्वय किया जायमा तो किसी भवन से घट बाहर हो जाने पर भी भवने घट: अस्ति' एवं पूर्व कालमें भवनमें अविद्यमान घर वर्तमान में भवनवता होने पर 'भवने घटो नास्ति' इस व्यवहार में प्रामाण्य की आपत्ति होगी क्योंकि घट में पूर्व वाक्य ले भवन यत्तित्व और कालसम्बन्धरूप अस्तित्व का बोध होता है और वह दोनों ही घटमें विद्यमान है। और दूसरे वाक्य में घटाभाव में भवनवत्तित्व और कालसम्बन्धका बोध होता है और वे दोनों भी घट में विद्यमान है।
यदि यह कहा जाय कि- ऐसा मानने पर 'जातो न सत्ता' इस वाक्य से अन्वय बोध न हो सकेगा। क्योंकि सत्तामें जातिसमवेतत्व का प्रभाव मानने पर अप्रसिद्ध होगी । क्योंकि समवेतत्व-समवायापच्छिन्नत्तिता जातिनिहायत नहीं होती और जातिनिरूपित वृत्तित्वसामान्याभाव का बोध मानने पर बाध होगा। कोंकि सत्तामें किसी न किसी सम्बन्ध से तो जातिनिरूपितत्व होता है । अत एव जातिनिरूपितत्वसामान्याभाव उसमें बाधित है ।-किन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि उक्त वाक्य में जातिपदोत्तर सप्तमी विभक्ति की निरुतुलक्षणा स्वसमवायिसमवाय प्रादि सम्बन्ध से भिन्न जो सम्बन्ध तदवच्छिन्नवृत्तिता' रूप अर्थ में है । अत: स्वसमवायिसमवायादि सम्बन्ध मे भिन्न स्वरूपसम्बन्धावच्छिन्न जातिनिरूपितवृत्तिता घटाभावादि में प्रसिद्ध है । अतः सत्ता में उसके प्रभाव का बोध मानने से 'जातौ न सत्ता' इस वाक्य से भी अन्यय बोध की उपपत्ति हो सकती है।
(सप्तम्यर्थसम्बन्धी नयायिक मत प्रतिक्षेप) किन्तु विचार करने पर यायिक का यह मत ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि भूतले न घटः' इस वाक्य से 'घट: भूतलवृत्तित्वामाववान्' और घटाभावः भूतलनिरूपितत्तितावान्' इन दोनों प्रकार का बोध अनुभव सिद्ध है। - "उक्त वाक्य से दोनों प्रकार के बोध मानने पर-भवने घटोऽस्ति' इस बाबय से मोघट भरतनिरूपिताधेयत्व का बोध होनेसे उक्त वाक्य के प्रामाण्य की प्रापत्ति होगी। यह शङ्का नहीं की जा सकती। क्योंकि घटमें भूतल निरूपित प्राधेयता कश्चित् घटसे मिन्न होती है । और जब घट भवन से बाहर होता है तब घटका वह भूतलनिरूपिताधेयता रूप पर्याय नष्ट हो जाता है। प्रतः उक्त व्यवहार में अप्रामाण्य की अनुपपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि भूतलनिरूपितायताविशिष्ट घट में अस्तित्व का प्रन्यय करने पर भूतलानरूपिताधेयता का विलय हो जाने के कारण उसमें तत्काल में अस्तित्व बाधित है। विशिष्ट में अस्तित्व का अन्वय होने पर विशेषण में भी अन्बयमानना आवश्यक है, अन्यथा जिस समय घट पाक से रक्त हो जाता है उस समय भी 'श्यामो घटोऽस्ति' इस बुद्धि की आपत्ति होगी। क्योंकि घट में श्याम रूप भी रह चुका है और अस्तित्व उस कालमें भी है अत एव घटमें श्यामरूप और अस्तित्व के बोधका कोई बाधक नहीं है।