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व्यवहर्तव्यज्ञाने सति, सत्या चेन्छायां व्यवहारोदयेन तत्राधिकस्यानपेक्षणात् , हस्तवितस्त्या. घवच्छेद्यत्वेन दीयत्वग्रह एवं सजातीयसाक्षात्कारप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वेन तारत्वादिग्रह एवं चावध्यपेक्ष गात् । न चाभाषपृश्यभावस्याधिकरणानतिरेकेण सर्वमिदं प्रतियन्दिकलितमिति घाच्यम् , अभावसिद्धघु तरमुपस्थितायाम्तस्याः फलमुखगौरवबददोषन्यात् । न चाभावग्रहसामग्रयेव तदुपपत्तेः किमन्तर्गडुनाऽभावेनेति वाच्यम् , 'नास्ति' इति धीविषयस्य तस्यान्तर्गडत्वायोगात् ।
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से भिन्न मानने में कोई बाधा नहीं है किन्तु-यह ठीक नहीं है। क्योंकि व्यवहष्यि का ज्ञान और व्यवहार की इच्छा होने पर व्यवहार को उत्पत्ति होती है अत: व्यवहार में उन दोनों से अतिरिक्त कारण की अपेक्षा नहीं होगी। किन्तु सावधिक पदार्थ के व्यवहार के लिए अवधि की अपेक्षा अवश्य होती है। जैसे हाथ और वेत प्रादि को अपेक्षा वोघरव व्यवहार के लिए हाथ और घेत प्रादि की अपेक्षा से उपभूत दीर्घत्व ज्ञान हो अपेक्षित होता है। एवं वोणा के ध्वनि प्रादि की अपेक्षा मबङ्ग प्रादि की ध्वनि तार (तीन) होती है' इस व्यवहार के लिए बोरगा प्रादि की ध्वनि के साक्षात्कार का सजातीय विरोधी मदंग ध्वनि में प्रतिबन्धकतावश्छेदक रूप से सारत्याग्रह की ही अपेक्षा रहती है। इसलिए दीर्वत्य और तारस्वावि सावधिक होते हैं। उसी प्रकार सप्रतियोगिकत्व रूपसे प्रभाव व्यवहार के लिए सप्रतियोगिकरय रूपसे प्रभाव के ज्ञान को अपेक्षा होती है। इसलिए प्रभाव को सप्रतियोगिक मानना प्रावश्यक है।
यदि यह कहा जाय कि-यायिक भी प्रभाव वृति प्रभाव को अनवस्था प्रसर भय से और कोई बाधक न होने से अधिकरण स्वरूप मानते हैं । अत: प्रभाव में भावात्मक अधिकरण की अभिप्रता का खण्उन प्रतिबन्दि(समान प्रत्युत्तर) से कवलित हो जायेगा' -तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अमावात्मक प्रधिकरण से प्रभाव को अभिन्नता सिद्ध होने के बाद ही प्रतिबन्धि को उपस्थिति होती है। अत एव वह फल मुरखगौरव के समान दोष नहीं है ।
यदि यह कहा जाय कि जिस सामग्री से प्रभाव का ज्ञान होता है उस सामग्री से ही प्रभाव ग्रह और प्रभाव व्यवहार को सिद्धि हो जायेगो अंसे अधिकरण और इन्द्रिय का सन्निकर्ष-अधिकरणज्ञान -प्रतियोगीज्ञान-अधिकरण में प्रालोक सन्निधान प्रादि से ही प्रभाव का ग्रहण हो कर प्रभाव व्यवहार की उत्पत्ति हो सकता है । अत: अधिकरण से अतिरिक्त प्रभाव का प्रभ्युपगम निरर्थक है" तो यह ठोक नहीं है क्योंकि, अतिरिक्त प्रमाव का अभ्युपगम न करने पर 'नास्ति' यह वृद्धि निविषयक हो जायेगी क्योंकि भूतलरूप अधिकरण अथवा घटादिरूपप्रतियोगी को उस बुद्धि का विषय नहीं माना जा सकता । क्योंकि भूतल में घट के प्रदर्शनकाल में भूतलं नास्ति' यह बुद्धि नहीं होती । यदि 'नास्ति' इस प्रतीति का विषय भूतल से अतिरिक्त किसी को न मानकर भूतल को ही माना जायेगा तो 'मूतलं नास्ति' इस प्रतीति को प्रापत्ति अनिवार्य होगो । प्रत: नास्ति' इस प्रतीति में सविषयकत्व की उपपत्त के लिए अधिकरण से भिन्न प्रभाव का अभ्युपगम अनिवार्य होनेसे प्रमाद की कल्पना पो निरर्थक नहीं कहा जा सकता।