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स्या० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
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पदा कोष" अन्तत्यर्थेि ज्ञानं शब्दः करोति हि । अवाधातु प्रमामत्र स्वतः प्रामाण्यनिश्चलाम् ।।” [ खंडन खंडखाद्य १ - १] इति । न चैवं तदुपलम्भकसामग्र्यादिकल्पने गौरवम्, प्रामाणिकत्वात् । अन्यथा प्रातीतिक पदार्थमात्र विलयापत्तेरिति चेत् ?
न दोषेतरतदुपलम्भकहेतोरेवाभावात्, आलोक-मनस्कारादेर्भावस्यैवोपलम्भकत्वात् 1 दोष का सन्निवेश है । अत: योग्यानुपलम्भ से शशशृङ्ग के प्रभाव का ग्रहण प्रसम्भव है ।" यह कथन निर्मूल हो जाता है।
यदि यह कहा जाय कि -' घटादि का भवन तुच्छ होता है और तुच्छ में किसी पदकी शक्ति अथवा लक्षणारूप वृत्ति नहीं होती है । अतः उसके सम्बन्ध में शाब्द व्यवहार प्रसङ्गत है । तो यह कहना ठीक नहीं हो सकता है । क्योंकि, पदवृत्ति का प्रभाव होने पर भी दोषविशेष के प्रभाव से, शब्द से भी घटादि के श्रभवन का बोध हो सकता है जैसे निर्गुण में किसी भी पदका संकेतादि न होने पर भी निर्दोषत्व के बल से 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इत्यादि वेदान्त वाक्य से निर्गुहा का बोध होता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जैसे इन्द्रिय यद्यपि सन्निकृष्ट अर्थ का ही ग्रहण करती है फिर मोचक्षु द्वारा शङ्ख में प्रसन्निकृष्ट पीलेपन का ग्रह अपने में रहे हुए पीत्त दोषकी महिमा से [ सहयोग से ] होता है। एवं शुषितगत रजतसादृश्य रूप दोष के बलसे शुक्ति में प्रसत्रिकृष्ट रजतत्व का भी ग्रहण नेत्र से होता है उसी प्रकार पद, वृत्ति से उपस्याप्य अर्थ का ग्राहक होने पर मी वृत्ति के
योग्य अर्थ का भी ग्राहक हो सकता है यदि उसे किसी प्रतिरिक्त सहाय का सनिधान प्राप्त हो जाए। यही कारण है कि वेदान्तवाक्यघटक सत्यादि पद की निर्गुण ब्रह्म में वृत्ति सम्भव न होने पर भी ब्रह्मगत निर्दोषत्व की सहायता से उसका बोध होता है । तो जैसे वेदान्त वाक्य घटक सत्यादिपद से वृत्ति से अनुपस्थाप्य भी निर्गुण ब्रह्म का बोध होता है उसी प्रकार घटादि के श्रभवन में पदकी वृत्ति न होने पर भी उसके तुच्छत्व रूप दोष की सहायता से उसका बोधन हो सकता है। इस मान्यता का मूल अभिप्राय यह है कि जो पदार्थ किसी गुणधर्म प्रादि से विशिष्ट होता है उसका शब्द द्वारा बोध होने के लिए उस गुणधर्मं विशिष्ट वस्तु शब्द की वृत्ति प्रपेक्षित होती है। इसलिए एक गुणधर्म विशिष्ट के बोधक शब्द से श्रन्य गुणधर्म विशिष्ट पदार्थ कर बोध नहीं होता। किन्तु जिस पदार्थ में कोई मुख्य धर्म वैशिष्टय नहीं होता है, शब्द द्वारा उसके बोध के लिए उसमें शब्द की वृति अपेक्षित नहीं होती। इसलिए जैसे वेदान्त वाक्य से निर्गुणब्रह्म का बोध सम्भव होता है उसी प्रकार घटा भवन शब्द से घटादिके प्रभवदावि तुच्छ *पदार्थ का भी बोध हो सकता है ।
में
* इस पर यह शङ्का हो सकती है कि "बामवन जैसे तुच्छ पचार्थ है उसी प्रकार पटादि का भवन मी तुच्छ पदार्थ है और उसमें भी कोई गुणधर्म वैशिष्टय नहोने से उम्र के मान के लिए मी शब्द की वृत्ति अपेक्षित नहीं होगी। तब वृत्ति की अपेक्षा का अभाव तुल्य होने पर घटाऽभवन शब्द से जैसे घटाभवन तुच्छ का बोध होता है तो पहाभवन रूप तु का भी दोष हो जायेगा" - किन्तु यह संभव नहीं है क्योंकि टावन शब्द के साथ घटामन रूप तुच्छ के बोध का ही अन्वयव्यतिरेक देखने में आता है पटाभवन रूप तुच्छ के बोध का उसके साथ अन्वयव्यतिरिक देखने में नहीं भाता है इसलिए घटाभवन शब्द को केवल घटामधन रूप तुच्छ का ही बोधक मानना होगा ।