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[ शा०३० समुच्चय स्त०४-इनोक ३३
एतेन-*दुष्टोपलम्भसामग्री शशशृङ्गादियोग्यता । न तस्यां नोपलम्भोऽस्ति, नास्ति सानुपलम्भने न्या. कु. ३-३] ।" इत्युदयनोक्तमपास्तम् ।
न च पदधृत्याद्यभावात् तादृशशाब्दव्यवहाराऽसङ्गतिरिति वाच्यम् , पदवृत्याद्यमावेऽपि दोपविशेषमहिम्ना शब्दादपि तद्रोधसम्भवात् , वेदान्तवाक्याद् निदोपत्वमहिम्ना पदच्यादिकं विनैव वेदान्तिनो निगुणब्रह्मयोधवत् । भ्रमजमकदोष से इतर एवं प्रतियोगी-सदाचाप्य से इतर प्रतियोगिग्राहकसामनोरूप योग्यता और वह्नि विशिष्ट हुदत्व के अनुपलम्भ रहने से वह्निविशिष्टहृदत्वाभाव के प्रत्यक्ष को प्रापत्ति प्रनिधाय होगी । यदि इस दोषके भी परिहार के लिए जिस प्रधिकरण में जिस प्रतियोगीक प्रभाव का ग्रहण होता है उस अधिकरण में उस प्रतियोगी के अनुपलम्भ का विघटन करने वा से इतरत्व का निवेश करेंगे तब, जैसे शंख में पीतत्ववैशिष्टय के भ्रम का जनक दोष रहने पर और एतवदेशमें पोतशडभ्रम का जनक दोष न रहने पर एतदेश में पीतशः के अलपलम्भ के विघटक दोष से इतर एवं गणिोली-प्रतियोगिता प्रकार प्रतियोगी प्राशयावत् कारण कलापरूप योग्यता और पीतशङ्ख की अनुपलब्धि से एतद्देशमें पीत शङ्ख का अभाव ग्रहण होता है, उसी प्रकार शन में शशवृत्तित्वके भ्रम का जनक दोष रहने पर भी एतद्देश में शशशङ्ग के भ्रमका जनक दोष न रहने पर एतद्देश में शशशुङ्ग के अनुपलम्भ का विघटन करनेवाले दोषसे अतिरिक्त एवं प्रतियोगी और तचाप्यसे अतिरिक्त प्रतियोगी के ग्राहक यावत्कारण का सनिधान और शशशङ्गकी अनुपलब्धि होनेसे एतद्देश में शशशङ्ग के प्रभाव का ग्रहण हो सकता है । इस प्रकार प्रतियोगी को अनुपलब्धि के सहकारी रूपमें स्वीकरणीय प्रतियोगिग्राहकयोग्यता को कुक्षिमें दोषेतरत्व का निवेश होने से शङ्गमें शशवत्तित्व के भ्रामक दोष रहने परमी अधिकरणभूत प्रश्वादि में शशशङ्ग के भ्रमजनक बोष न रहने से प्रश्वादि में शशशश-प्रभाव के ग्रहण की जानका शशशङ्ग की अनुपलब्धि को योग्यता का सन्निधान प्राप्त होनेसे शशशङ्ग-प्रभाव का ग्रहण हो सकता है।
नियायिक जदयनमत का प्रतिक्षेप] अत: उदयनाचार्य का यह कथन भी कि-"शङ्गमें शशवृत्तित्व के ग्राहक दोष से घटित सामग्री ही शशशन की योग्यता है। अतः उस योग्यता के रहनेपर शशशङ्ग का उपलम्भ ही हो जानेसे उस समय शशशृङ्ग का अनुपलम्भ नहीं हो सकता है । और शशशङ्गके अनुपलम्भ काल में शशशृङ्ग का ग्राहक दोष न होने से योग्यता नहीं रहती। क्योंकि शाङ्गग्राहक योग्यता के गर्भ में शशशङ्ग ग्राहक
* शशशृङ्गानियोग्यता शशङ्गादिस्थ ले ऽनुपलब्धियोग्यता 'दुष्टा' दोषरिता. वपलम्मसामग्री शशशलोपलम्मस्य भ्रमत्वेन तज्जनकसामप्रथा दोषघटितत्वनियमान प्रतियोगिमाहपस्येवोक्तयुक्त्या योग्यतावनिर्वचनात् । 'तस्यां' सत्यां 'नोपलम्मः'उपळम्मामाष इति नास्ति । मनुषसम्मने अनुपलसंधी 'मा' पूर्वोक्ता योग्यतंय नास्तीत्यर्थः । तथा च यदा तासाममी सदा न प्रतियोग्युपलम्मामाव:, यदि तु न तादृशमामग्री तदा न निक्तयोग्यानुपलब्धिरिति न यथा शशशशाभावसिद्धि. तथा निरुक्तयोग्यशनुपलब्धिविरहादीश्वराभावोऽपि न सिध्यतीति मायः ।