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स्या०० टीका-हिन्दी विवेचना ]
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द्यभावप्रत्यक्षमपि न स्यात् । न च प्रतियोग्यंशे भ्रमजनकदोषेतरत्वं निवेशनीयम्, हृदे वह्निआमदोषकाले वह्निविशिष्टहृदत्वाभावप्रत्यक्षापत्तेः तत्र तदनुपलम्भविघटकदोषेतरत्वनिवेशे च 'अत्र पीतशङ्खो नास्ति' इत्यादाचिव तत्र तद्वनाभ्रमजनकदोषाऽतिरिक्तस्य प्रतियोगिनि प्रतियोगितावच्छ देकवैशिष्टयांशे भ्रमजनकस्य दोषस्य सच्चेऽपि तत्र तदनुपलम्भस्यावाधात् ।
( धर्मको के विरुद्ध विस्तृत पूर्वपक्ष )
यदि बौद्ध प्रतिद्वन्द्वो की और से इस पर यह शङ्का की जाय कि ' योग्यानुपलब्धि से शशशृङ्गाभाव का ग्रहण होने से शशशृङ्ग का प्रभाव प्रामाणिक है। प्रत एव उसमें कालसम्बन्धरूप भवन का विधान मानने में कोई विरोध नहीं हो सकता ।
fa यह शङ्का की जाय कि - " शशशृङ्ग को अनुपलब्धि योग्यानुपलब्धि नहीं होगी। क्योंकि प्रतियोगी से और प्रतियोग से इतर वात्कारणकलाप को हो प्रतियोगी की योग्यता मानी जायेगी। अब शशशृङ्ग-प्रभाव के प्रतियोगी और प्रतियोगिव्याप्य इतर प्रतियोगी ग्राहक यावत्कारण के मध्य में शशशृङ्ग ग्राहक दोष भी प्राता है । अतः उस दोष के रहने पर हो योग्यता रह सकती है, किन्तु उस क्षण में दोष महिमा से शशशृङ्ग की ( भ्रमात्मक) उपलब्धि हो जाती है । अत एव शशशृङ्ग की अनुपलब्धि नहीं रह सकती, प्रत एव योग्यानुपलब्धि से शशशृङ्गप्रभाव का ग्रहण मानना सङ्गत नहीं हो सकता'
तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि योग्यता के शरीर में प्रतियोगी और प्रतियोगिव्याप्यइतरत्व के समान दोषेतरस्य का निवेश करना भी श्रावश्यक होता है । अतः शशशृङ्ग के ग्राहक दोष के प्रभाव में प्रतियोगी प्रतियोगीध्याप्य एवं दोष से इतर यावत् कारणसामग्रीस्वरूप योग्यता एवं शशशृङ्ग की अनुपलब्धि होने से शशशृङ्ग के प्रभाव का ग्रहण हो सकता है ।
यदि यह कहा जाय कि शशशृङ्ग-प्रभाव का ग्रहण होने में कोई प्रमाण न होने से शशशृङ्ग के ग्राहक दोष के प्रसत्त्व कालमें शशशृङ्ग ग्राहक योग्यता को सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है । अतः प्रनुपलम्भ के सहकारीभूत योग्यता को कुक्षि में दोबेतरत्व का निवेश अनावश्यक है । फलत: शशशृङ्ग के अनुपलम्म काल में प्रतियोगी और तब्याप्य से इतर प्रतियोगगिग्राहक यावत्कारण रूप योग्यता के न होने से शशशृङ्ग-प्रभाव का ग्रहण नहीं माना जा सकता"
तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि यदि योग्यता के शरीर में दोषेतरत्व का निवेश न किया जाएगा तो जलाशय में वह्नि के प्रभाव का प्रत्यक्ष न हो सकेगा, क्योंकि जलाशय में जब वह्निभ्रमजनकदोष रह गया उस समय में बह्नि का अनुपलम्भ नहीं होगा, और जब उक्त दोष नहीं रहेगा उस काल में ग्रहण की योग्यता नहीं रहेगी । फलतः योग्यता विशिष्टानुपलकिन के सम्भव न होनेसे जलाशय में बहुन्यभाव का प्रत्यक्ष न हो सकेगा ।
यदि इस प्रपति के परिहारार्थ योग्यता की कुक्षिमें प्रतियोगी अंशमें भ्रमजनक जो शेष ततिर मात्र का निवेश करे तो जलाशय में वह्निभ्रमजनक शेष के समय जलाशय में वह्निविशि
त्वामाथ के प्रत्यक्ष की भावसि होगी । क्योंकि हृदमें वह्निभ्रम का जनकदोष वह्निविशिष्टहृदयाभाव के प्रतियोगी-अंश में भ्रमजनक नहीं है। प्रत एव दोष के रहने पर मो प्रतियोगि-अंश में