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स्या का टीका-हिन्दीविवेचन ]
प्रतिक्षिप्तं चैतत् , यद्यस्मात् , सस्वानाशिस्वागः भावोन्मज्जनापराधः अनिवारितम् अतस्तदवस्थ एव । कथम् ? इत्याह-तुच्छरूपा=निःस्वभावात्मिका, तदा द्वितीयक्षणे असता. तस्या नाशिता निवृत्तिः, भावाप्से सत्तारूपप्रवेशात , उपिताप्राक प्रसञ्जिता ॥३५|| ननूक्तं 'अभावे विकल्पाभावाद् न प्रसङ्गः' इत्यत्राह
मूलम्-भावस्याभवनं यत्तदभावभवनं तु यत् ।
__तत्तथाधर्मके हयक्तविकल्पो न विरुध्यते ।।३६ । मावस्याभवनं यत्-तुच्छरूपं तत् तदेव अभावभवनम् , आर्थप्रत्ययाऽविशेषात् , 'घटो नास्ति' इत्यतो घटाऽस्तित्वाऽभावबोधवद् घटाऽभावेऽस्तित्वबोधस्याऽप्यानुभविकत्वात् , उभयथापि संशयाऽभावात् , तात्पर्यभेदेनोभयोपपत्तेश्च ।
(धर्मकीतिमत का प्रतिक्षेप प्रारम्भ) ३५ वीं कारिका में यह बताया गया है कि "धर्मकीति ने जो कुछ कहा है उस सबका 'सतोऽसत्त्वे' इस १२ वी कारिका में खण्डन कर दिया है। फिर भो ३४ वीं कारिका में पूर्वभाव के अप्सत्व को निवृत्ति होने पर पूर्वभाव का पुन: उन्मज्जन रूप अनिष्ट प्रसङ्ग के निराकरण की जो बात कही गई है उसकी उपपत्ति नहीं हो सकती ।" कारिका का अयं इस प्रकार है-सत्त्व के अनाशित्व का अर्थात पूर्वक्षणमें उत्पन्न भाव के द्वितीयक्षणमें होनेवाले नाश का अभाव अर्थात् तृतीयक्षण में भाव के पुनरुत्मज्जन का जो अनिष्टापादन बताया गया है, वह धर्मकीति द्वारा प्रदशित रीति से भी निवारित नहीं होता । अतः वह दोष यथापूर्व बना रहता है, क्योंकि पूर्वक्षणोत्पन्न माय का द्वितीयक्षणमें जो तुच्छ प्रसत्त्व उत्पन्न होता है, भावकी प्राप्ति-उत्पत्ति होने के कारण उसकी भी नाशिता अर्थात् निवृत्ति को आपत्ति उद्भरवित की गई है जिससे द्वितीय क्षण में विनष्ट पूर्वभाव का अग्रिम क्षणमें उन्मज्जन अपरिहार्य हो जाता है ।।३५॥
[प्रभाव में विकल्प के असंभव कथन का प्रतिकार 'प्रभाव के तुच्छ होने से उसमें उसके भवन-उत्पत्ति आदि का विकल्प सम्भव न होने के कारण उक्त अनिष्ट प्रसङ्ग नहीं हो सकता' इस प्रकार बौद्ध द्वारा स्मरण कराये गये पूर्वोक्त तर्फ का ३६ वीं कारिका में निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
माव का जो तुच्छ अभवन होता है यही प्रभाव का भवन है। क्योंकि 'मायो न मति' और प्रभावो भवति' इन दोनों वाक्यों से उत्पन्न होने वाले प्रर्थबोध में कोई भेद नहीं होता। जैसे 'घटो नास्ति' इस वाक्य से घट में प्रस्तिस्यामाव का बोध होता है उसी प्रकार घटाभाव में अस्तित्व का बोध भी उस वाक्य से अनुभव सिद्ध है । क्योंकि 'घटो नास्ति' इस वाक्य. जन्य बोध के बाद जैसे
प्रस्तित वा' इस संशय की निवतियोती है उसी प्रकार 'घटामावः अस्तिनवास संशय की भो नियत्ति होती है ।-घटो नास्ति' इस एक ही वाक्य से घटमें अस्तित्वाभाव के और घटाभाव में अस्तित्व के द्विविध बोध की उपपत्ति नहीं हो सकती-यह शङ्का नहीं की जा सकती क्योंकि तात्पर्य