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[ शा. बा. समुच्चय-स्त०४-श्लो० ३४-३५
एवं समर्थिते स्वमते परः स्वयमेव प्रसङ्गदोष परिहरमाहमूलम्-एतेनाऽहेतुकत्वेऽपि ह्यभूत्वा नाशभावतः ।
सत्त्वाऽनाशित्वदोषस्य प्रत्याख्यातं प्रसञ्जनम् ||३४|| एतेन नाशस्य विधिव्यवहाराऽविषयत्वप्रतिपादनेन, नाशस्याऽहेतुकत्वेऽप्यङ्गीक्रियमाणे हि-निश्चितम् अभूत्वा-प्रथममभवनरूपेणोत्पद्य, नाशभावतः अनन्त भावरूपतया नाशोत्पत्तेः, सवामाशित्वदोषस्य अङ्कुरादिवत् सत्वोन्मज्जनरूपस्यानिष्टस्य, प्रसजनम् = आपादानम् , प्रत्याख्यातं निराकृतम् ।।३४|
एतद् धर्मकीर्तिनोक्तम् , तच्च सर्व ‘सतोऽसत्त्वे' ८ (का० १२) इत्यादिनेह दूषितमेव, तथापि 'यतेन' इत्यादि योजयन्नाहमृतम्-प्रतिक्षिप्तं च यत्सत्त्वानाशिवागोऽनिवारितम् ।
तुच्छरूपा तदाऽसत्ता भावाप्नोशितोदिता ।।३।।
शब्दों से व्यवहार नहीं होता किन्तु 'शशशृङ्ग अस्तित्वामायवत्' ऐसा ही व्यवहार होता है। और व्यवहार के प्रतिकूल कोई कल्पना युक्तिसङ्गत नहीं होती ॥३३॥
नष्ट भाव के उन्मज्जन को आपत्ति का प्रतिकार] ३४ वीं कारिका में यह बात बतायी गई है कि धर्मकोत्ति ने उक्त प्रकार से अपने मत का समर्थन कर के बौद्ध सिद्धान्त में प्रसक्त होने वाले दोष का स्वयं ही परिहार किया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
'नाश विधिव्यवहार का विषय नहीं हो सकता' इस तथ्य का प्रतिपादन कर देने से 'नाश आहेतुक होता है. इसलिए अपने प्रतियोगी के उत्पत्ति क्षण में ही उत्पन्न हो जाता है इस बौद्ध सिद्धान्त में जो प्रतिवादीयों द्वारा अनिष्टापादन होता है उसका निराकरण हो जाता है। प्राशय यह है किनाश को अहेतुक मानने पर प्रतिवादी द्वारा बौद्ध मतमें यह प्रनिष्टापादन किया जाता है कि पूर्वक्षण में उत्पन्न का द्वितीयक्षण में प्रभवन-असत्त्व उत्पन्न होगा और उसके अनन्तर भाव रूप नया उसका नाश उत्पन्न होगा। क्योंकि जो उत्पन्न होता है उसका नाश अवश्य होता है । फलतः पूर्वक्षण में उत्पन्न होने वाले भाव के नाश का अभाव हो जायगा जिससे उस भाव के उन्मज्जन पुनवंशन-पुनः अस्तित्व रूप अनिष्ट की आपत्ति होगी । पूर्वभाष के असत्त्व का नाश होनेपर उसका पुनरुन्मज्जन उसी प्रकार प्रसक्त होगा जैसे बीजका नाश होने पर अडकूर का उन्मजन होता है। किन्तु उक्त रीतिसे जब यह तथ्य स्फुट कर दिया गया कि नाश अर्थात् पूर्वक्षणमें होनेवाले भाव का द्वितीयक्षणमें असत्त्व तुच्छ होने से विधिम्यवहार का विषय नहीं है, तो फिर भावरूप में उसकी उत्पत्ति की कल्पना नहीं हो सकती ॥३४॥