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[ शा.वा.समुच्चय स्त० ४-३को० ६३
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इदमेव भावयतिमूलं-वस्तुनोऽनन्तरं सत्ता तत्तथा तां विना भवेत् ।
नभःपातादसत्सत्त्वयोगाछेति न तत्फलम् ॥३३॥
वस्तुनः मृदादेः, अनन्तरं सत्ता-घटादिकार्गरूपा, तत्तथा तां विना-मृदादेव तद्भावमन्तरेण, नभःपातात् अकस्माद् वा भवेत् , असत्सवयोगादा-असतः सदवस्थापत्तेर्वा, इति हेतोनियमाऽयोगाद , न तत्फलम्-न तस्यैव कार्य तदिति ॥६३॥ कारित्व नहीं होता। प्रतः स्वरूपसत् होने पर भी वह स्वप्न में दृष्ट पदार्थ के समान वस्तु की व्यवस्था का हेतु नहीं हो सकता । प्राशय यह है कि बौद्ध मत में सत्ता दो प्रकार की होती है ।। १) अर्थकियाकारित्व रूप सत्ता उस समय होती है जब बस्तु किसी कार्य को उत्पादक होती है। किन्तु स्वरूप सत्ता के लिये किसी कार्य का उत्पादक होना आवश्यक नहीं है अपि तु उसके लिये विकल्पात्मक जानका विषय होनाही पर्याप्त है। शशशङ्गादि की स्वरूप सत्ता नहीं होती क्योंकि वह विकल्पात्मक ज्ञानका ही विषय होता है। किन्त जो वस्त कभी विकल्पात्मक ज्ञानका विषय नहीं होती है उसकी स्वरूप सत्ता प्रक्रियाकारित्व के न होने पर भी मानी जाती है। जैसे स्वप्न में दृष्ट पदार्थ अर्थभियाकारी न होने पर भी स्वरूप से सत होता है। उसी प्रकार पूर्वक्षण भी उत्तरक्षण के उत्पत्ति काल में प्रक्रियाकारित्व की दृष्टि से असत् हो जाता है किन्तु स्वरूप सत्ता उसको उस समय भी होती है। किन्तु यह स्वरूप सत्ता किसी वस्तु की व्यवस्था के लिये प्रकिश्चित्कर है। उसके लिये प्रर्थक्रियाकारित्वरूप सत्ता प्रावश्यक होती है अन्यथा यदि स्वरूप सत्ता भी उसके लिये पर्याप्त मानी जाय तो स्वप्नदृष्ट पदार्थ से भी वस्तु को व्यवस्था होने की प्रापत्ति होगी।
यह भी ज्ञातव्य है कि उत्पन्न होनेवाला भाव प्रसस् पदार्थ की विशेष अवस्था ही है। क्योंकि अनुत्पत्ति रूप असत्ता अर्थात् उत्पत्ति के पूर्व वस्तु को प्रसत्ता ही उत्पत्ति रूप सत्ता की अवस्था को प्राप्त करती है। कथन का निष्कर्ष यह है कि जो शान्तरक्षित ने यह कहा था कि "प्रसत् में भायका जनकत्व नहीं हो सकता और उत्पन्न होने वाला भाव भी प्रसत्ता का अवस्थान्तर नहीं है" यह युक्तिसङ्कत नहीं है। क्योंकि उक्त रीति से उत्तर भावको उत्पत्ति काल में पूर्वभाव के असत् होने से असत में हो भावका जनकरव और उत्पत्ति के पूर्व असत्ता का ही उत्पत्ति रूप सत्ता की अवस्था में परिवर्तन होने से उत्पत्ति को असत्ता का ही प्रवस्थान्तररूपत्व बौद्ध मत में भी सिद्ध होता है । इस प्रकार शान्तरक्षित के उक्त कथन की निःसारता सूचित हो जाती है । ६२।।
( असत् पदार्थ अकस्मात् या सत्त्वलाभ कर के उत्पन्न नहीं हो सकता ) ६३ वीं कारिका में उक्त युक्ति से प्राप्य फल का कथन किया गया है-मिट्टी प्रादि वस्तु के बाद ओ घटादि रूप सत्ता होती है वह मिट्टी आदि का घटादि रूप में परिणमन माने बिना नहीं हो सकती क्योंकि मिट्टी प्रादि का घटादि रूप में परिणमन न मानने पर घटादि को मिट्टो प्रादि का कार्य कहना दो प्रकार से ही सम्भव हो सकता है। एक यह कि कार्य प्राकाश से टपक पडता है अर्थात् कार्य की उत्पत्ति अकस्मात होती है। दूसरा यह कि असत् को सववस्था की प्राप्ति होती है । किन्तु यह दोनों ही अनियत है। क्योंकि यदि कार्य अकस्मात् हुमा करे तो अप्रामाणिक प्रनन्त कार्योत्पत्ति का प्रसङ्ग