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स्या० का टीका-हिन्दीविवेचन ]
[ १५५ अथ नेयं वासना वासकसंसर्गरूपा, किन्तु मृगमदक्षण परम्परावत् स्वहेतुप्रसूततत्तक्षणपरम्परारूपैच, इत्यभिप्रायमाकलय्याभ्युपगतमप्यसंगतत्वात् परित्यजभाह
वास्यवासकभावश्च न हेतुफलभावतः ।
तत्त्वतोऽन्य इति न्यायात्स चायुक्तो निदर्शितः ॥१२॥ चास्यवापकभावश्चार्य भवत्कल्पितो न हेतुफलभावतः सकाशात तत्वतोऽन्यः, किन्तु स एव । स च न्यायात-सतर्कात् , अयुक्तो निदर्शितः ॥१२॥
[ संक्रमण के विना वासना को परम्परा का प्रसंभव ] यदि वासना का संक्रमण अर्थात् वासक पूर्वक्षण का उत्तरक्षण में किसी प्रकार का संवेध अन्वय के प्रभाव में भी माना जायगा कि वासपूर्वक्षण उत्तरक्षण को वासित कर सकता है तो ऐसा मानने पर प्रतिप्रसंग होगा, क्योंकि फिर 'वह अपने सन्तानवर्तो क्षण को ही दासित करेगा और दूसरे को नहीं इसमें कोई युक्ति न होगी । फलत: एक क्षरणजीवीप्राणी के द्वारा किये गये कर्म से जन्य वासना से अन्य सन्तानवर्ती क्षणों भी वासित होने से एक सन्तान द्वारा कृत कर्म के फल भोग की दूसरे सन्तान जी प्रसारित होगी।
वों कारिका में वास्य-वासक भाव के सम्बन्ध में बौद्धोक्त एक अन्य कथन का निराकरण किया गया है
(परम्परा के आधार पर वास्य यासक भाव की अनुपपत्ति) बौद्धों का यह कहना है कि वासना 'चास्य में वासना का अन्वय' रूप नहीं है, किन्तु जैसे मगमव (कस्तुरीक्षण प्रपने उपर रखे हुये पट के विभिन्न स्तरों में नये नये मृगमद क्षण को उत्पन्न कर सभी को बासित करता है, और उससे उत्पन्न होने वाली कस्तुरीक्षणों की परम्परा ही कस्तुरी द्वारा की जाने वाली वासना कही जाती है, उसी प्रकार एक सन्तान का घटक पूर्वक्षणजीयो प्राणी जब कोई कर्म करता है और उस कर्म से कोई शुभाशुभ वासना उत्पन्न होती है तो उस वासना से मी वासना क्षयों की परम्परा प्रादुर्भूत होती है और यह तब तक होती रहती है जब तक उस सन्तान के प्राणो द्वारा उस कर्म के फल का अनुभव नहीं हो जाता । इस प्रकार पूर्वोत्तर क्षणों में वासनाक्षणपरम्परा रूप वासना के द्वारा उनमें वास्य-वासक भाव सम्मय हो सकता है। इसके लिये किसी अंश को अपेक्षा भी नहीं है। किन्तु इसके विरुद्ध ग्रन्थकार का कहना यह है कि बीजों द्वारा कल्पित यह वास्यवासक भाव पूर्वोत्तर क्षणों के कार्य कारण भाव से वस्तुत: भिन्न नहीं है। और पहले तर्कसिद्ध प्रतिपादन किया जा चूका है कि पूर्वोत्तर क्षणों में कार्यकारणभाव युक्तिसंगत नहीं है । १६॥
९३ वीं कारिका में कार्य कारण मात्र के सम्बन्ध में बौद्ध ने सिंहावलोकन न्याय से अपने मन्तव्य को प्रर्थात् जैसे सिंह प्रागे बढने से पूर्व कमी कमी पीछे देख लेता है उसी प्रकार कार्य कारण भाव के सम्बन्ध में जो चर्चा की जा चुकी है और उसमें जो दोष बताया जा चुका है उस प्रोर दृष्टि जाने पर कार्य कारण भाव के समर्थन में बौद्ध का एक नया मन्तब्य प्रस्तुत होता है। प्रस्तुत कारिका में उसो का प्रतिपादन किया गया है