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स्या० का टीका और हिन्दी विवेचना ]
परपक्ष एव दोषान्तरमाह--
सामग्रीभेदतो यश्च कार्यभेदः प्रगोयते ।
नानाकार्यसमुत्पाद एकस्याः सोऽपि बाध्यते । ७७।। यश्च परैः सुगतसुतैः सामग्रीभेदतः सामग्रीविशेषात् कार्यभेद: कार्यविशेषः प्रगीयते प्रतिज्ञायते, सोऽपि एकस्या एव सामन्रथा रूपा-ऽऽलोकादिनानाकार्यसमुत्पादेऽभ्युपगम्यमाने बाध्यते, सामग्रथविशेष कार्याऽविशेषादिति भावः ॥७७|| अत्रैव पराभिप्राय निषेधति
उपादानादिभावेन न चैकस्यास्तु संगता ।
युक्त्या निनामापोह प्रदनेकन्नकालाना !! न च, एकस्यास्तु-सामान्यत एकस्या एव सामग्रथाः उपादानादिभेदेन ज्ञानादौ मनस्कारादेरुपादानत्वेन; इतरेषां च सहकारित्वेन कारणताघटितेनावान्तरसामग्रीभेदेन, युक्त्या विचार्यमाणा, इह-प्रस्तुतविचारे, तदनेकत्वकल्पना-सामग्रथनेकत्वकल्पना, संगता-युक्ता ॥७८। तथाहियुक्तिसंगत नहीं है । कारण, स्वभाव और स्वभाव के धर्मी में परस्पर भेद होने में कोई युक्ति नहीं होने से स्वभाव के अनेक होने पर उसके धर्मों में अनेकता अपरिहार्य है अर्थात् स्वभावभेद मिभेद का पापादक है ॥७६॥
७७ वौं कारिका में बौद्ध के उक्त पक्ष में ही एक अन्य दोष भी बताया गया है
बौद्ध मत में भी सामग्री के भेद से कार्य भेद माना जाता है तो फिर जब रूप-प्रालोकादि कारणों के संनिधान रूप सामग्री से, रूपादि अनेक कार्यों की तथा बुद्धि को उत्पत्ति मानी जायगी, तो एकसामग्री से भी कार्यमेव (विभिन्न कार्य) की उत्पत्ति होने से 'सामग्री मेव से कार्यभेद होता है इस सिद्धान्त का व्याघात होगा ||७||
७८ वीं कारिका में इसी संदर्भ में बौद्ध के एक समाधान परक अभिप्राय का प्रतिषेधकिया गया हैबौद्ध पक्ष में प्रनंतर उद्भावित दोष के सम्बन्ध में बौद्ध का यह कथन है कि रूप-पालोकाविघटित एक सामग्री से रूप-पालोकादि अनेक कार्यों की उत्पत्ति अभिप्रेत नहीं है किन्तु जिस सामग्री को प्रतिवादी एक सामग्री समझते हैं, वह उपादान भेद से भिन्न सामग्री है । अर्थात् उक्तसामग्री पालोक प्रादि सहकारी प्रौर रूपात्मक उपादान से घटित होकर रूप की सामग्री है और मनस्कारात्मक उपादान एवं अन्य सहकारियों से घटित होकर जान की सामग्री है अतः उपर उपर से एक प्रतीत होने वाली सामग्री भी वस्तुतः अनेक है। प्रतः अनेक सामग्री से ही अनेक कार्योत्पत्ति होती है न कि एक सामग्री से ही अनेक कार्योत्पत्ति होती है। प्रतः प्रनंतरोक्त बोष के लिये कोई अवसर नहीं है। इस बौद्ध कथन के सम्बन्ध में ग्रन्थकार का यह सकेत है कि बौद्ध की यह कल्पना युक्ति संगत नहीं है ॥७॥