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[ शा. वा. समुच्चय स्त०-४ श्लोक-७६
रूपं येन स्वभावेन रूपोपादानकारणम् ।
निमित्तकारणं ज्ञाने तत्तनान्येन वा भवेत् १॥७९॥ रूपं येन स्वभावेन रूपोपादनकारणम् तेनैव स्वभावेन ज्ञाने निमित्तकारणं, अन्येन वा स्वभावेन भवेत् ? इति पशद्वयम् ॥७९|| आये आह
यदि तेनैव विज्ञानं बोधरूपं न युज्यते ।
अथान्येन, बलाद' रूपं विस्वभाव प्रसज्यते ॥३०॥ यदि तेनैव-रूपोपादनस्वभावेनैव ज्ञानजननस्वभावं रूपं, तदा विज्ञानं बोधरूपं न युज्यते, कार्ये सकलस्वगतविशेषाधायकत्वं युपादानत्वम् , तत्स्वभावत्वं च रूपादेयदि ज्ञानेऽपि जननीये, तदा तद्पादिस्वरूपतामास्कन्देव-बोधरूपता जहादिति भावः । द्वितीये आह-अथान्येन-उपादेयजननस्वभावभिन्नस्वभावेन रूपं बोधजनक, तदा बलात्-त्वदिच्छाननुरोधान , द्विस्वभावं रूपं प्रसज्यते । अनिष्टे चैतद् भवतः, उपादानसहकारिशक्तिभेदेऽपि स्वसंविद्येकत्वेनावभासनात , एकत्वाभ्युपगमे जनकत्वाऽजनकत्वाभ्यामप्यक्षणिकस्य तत एव तथात्याभ्युपगमे वाधकाभावात् । अथ न स्वभावभेदाद् भावभेदः, अपि तु विरुद्ध स्वभावभेदात् ,
७९ वी कारिका में उसी संकेत के उपपादन का उपक्रम किया गया है। रूप को रूप के प्रति उपादान कारण और ज्ञान के प्रति निमित्तकारण मानने पर दो पक्ष प्रश्नरूप में प्रस्तुत होते हैं। एक यह कि रूप जिस स्वभाव से रूप का उपादान कारण होता है क्या उसो स्वभाव से वह ज्ञान का निमित्त कारण होता है ? प्रथया (२) किसी अन्य स्वभाव से ?
८० वीं कारिका में इन दोनों पक्षों को प्रयुक्तता बतायी गयी है। यदि रूप जिस स्वभाव से ज्ञान का उपादान कारण होता है उसी स्वभाव से ज्ञान का निमित्त कारण होगा तो ज्ञान बोधरूप न हो सकेगा। क्योंकि उपावान कारण वही होता है जो अपने कार्य में अपने सम्पूर्ण वैशिष्टय का प्राधान करता है। अत: रूप से अपने रूपात्मक कार्य में अपनी रूप स्वभावता का प्राधान करता है उसी प्रकार यह ज्ञान में भी अपने उस स्वरूप का प्राधान करेगा । क्योंकि यद्यपि वह ज्ञान का उपादान कारण नहीं है किन्तु ज्ञान का जनन करते हुए भी वह अपने उस स्वभाव से मुक्त तो नहीं हो सकता । प्रतः रूप से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को रूपस्वभाषता प्राप्त कर बोधरूपता का त्याग करना होगा।
कारिका के उत्तरार्ध में रूप अन्य स्वमाव से ज्ञान का निमित्त कारण है-इस दूसरे पक्ष का निराकरण किया गया है। प्राशय यह है कि यदि रूप जिस स्वभाव से अपने उपादेय कार्य रूप का जनक होता है, यदि उस स्वभाव को छोड कर भिन्न स्वभाव से बोध का जनक होगा तो रूप हठ पूर्वक बौद्ध की इच्छा के विपरोत दो स्वभावों का पास्पद-प्राधय हो जायेगा जो बौद्ध को हष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि उनके मत में स्वभावभेद प्राश्रय के ऐक्य का विरोधी होता है । यदि यह कहा जाय कि-"स्वभाव भेद से आभय का मेद तभी होता है जब प्राश्रय के ऐक्य को सिद्ध करने