________________
स्वा० क० टीका और हिन्दी विवेचना ]
[ १४७
तत्कार्यजनकत्वा- जनकत्वे चाक्षणिकस्य विरुद्धौ स्वभाव, उपादानत्व-सहकारित्वशक्त्योच न विरोध इति न दोष इति चेत् १ न, तथाप्यनेकशक्तितादात्म्यानुविद्धैकरूपक्षणाद्यभ्युपगमेऽनेकान्तप्रसङ्गात् । शक्तिनां शक्तिमतोऽभेद एवेत्यभ्युपगमे च इदमुपादानम् इदं च सहकारिकारणम्' इत्यादिविभागाभावप्रसङ्गात् ||८०||
कल्पनयाऽयं विभागो भविष्यतीति पराभिप्रायमाशङ्क्य परिहरन्नाह - अवुद्धिजनकव्यावृत्त्या चेद् बुद्धिप्रसाधकः । रूपक्षणो बुद्धित्वात्कथं रूपस्य साधकः ? ८१
बाली कोई युक्ति न हो किन्तु रूप में ऐक्य सिद्ध करने वाली युक्ति है । अत: रूप के स्वभाव भेद से रूप में रूप के ऐक्य का विरोध नहीं हो सकता, जैसे उपादान शक्ति और सहकारि शक्ति रूप स्वभाव के मेद होने पर भी रूपज्ञान में रूप का एक ही रूपाकार में अवभास होता है, अतः यह स्वभाव उसके ऐक्य का साधक है। इसलिये स्वभावभेद ले उसका ऐक्य प्रतिहत नहीं हो सकता"तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर कार्य के जनकत्व और प्रजनकत्व रूप स्वभावभेद से स्थिरवस्तु में मी ऐक्य की सिद्धि का विरोध न हो सकेगा क्योंकि कुशूलस्थित दशा में अंकुर का प्रजनक और क्षेत्रस्थ दशा में अंकुर का जनक जो बीज उसके ज्ञान में बीज का एक हो बीजाकार रूप में मान होता है। प्रतः कुशूलस्थ बीज और क्षेत्रस्थ बीज में भी ऐषय का साधक उक्त ज्ञान रूप युक्ति विद्यमान है इसलिये उक्त स्वभाव मेद से खोज की भी भिन्नता नहीं सिद्ध होगी, क्योंकि दोनों को एकता में कोई बाधक नहीं है। फलतः अर्थक्रियाकारिश्व के बल से नाव की क्षणिकता का साधन असम्भव हो जायगा ।
यदि बौद्ध की और से यह कहा जाय कि उन्हें स्वभावमात्र के भेव से प्राश्रयभेद मान्य नहीं है अपितु विरुद्ध स्वभाव के भेद से प्राश्रयभेद मान्य है। तत्कार्यजनकत्व और तरकार्याजनकत्व ये दोनों सा श्रभाव रूप होने से विरुद्ध स्वभाव है अतः इन स्वभावों से युक्त एक स्थिर वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती किन्तु उपादानशक्ति और सहकारिशक्तिरूप विभिन्न स्वभाव युक्त क्षणिक एक रूप प्रादि की सिद्धि हो सकती है और इन स्वभावों में विरोध नहीं है। अतः रूप में स्वभाव - भेव प्रयुक्त जो प्रनेकस्वापत्ति रूप दोष उद्भावित किया गया है वह नहीं हो सकता" - तो यह ठीक नहीं है शक्तियों के सादात्म्य से युक्त रूपाद्यात्मक एक क्षणिक भाव का प्रस्तित्व मानने पर प्रनेकान्तवाद के शरण में पड जाना होगा ! शक्ति और शक्तिमान में प्रमेव मान कर यदि इस संकट से बचने की चेष्टा की जायगी तो यह भी सफल नहीं हो सकती है क्योंकि उस वशा में यह उपादान कारण है और यह सहकारी कारण है इस प्रकार का विभाग न हो सकेगा । क्योंकि उपादानशक्ति और सहकारी शक्ति रूप स्वभाव भी श्राश्रय से प्रभिन्न होने के कारण तब्से भिन्न होता है इस न्याय से एक हो जायगा ||८०||
८१ वीं कारिका में उपादान और सहकारी कारण के बौद्धाभिमत काल्पनिक विभाग का परिहार किया गया है