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[ शा० वा० समुरुचय स्त. ४-श्लोक ७६
मौलं विकल्पमधिकृत्य पक्षान्तरमाह
अथान्यत्रापि सामर्थ्य रूपादीनां प्रकल्प्यते ।
न तदेव तदित्येवं नाना चैकन्न तत्कुतः । ॥७६॥ अन्यत्रापि बुद्धधादिव्यतिरेकेण स्वसंततापि, सामर्य-रूपादिजननी शक्तिः, रूपादीनां समग्राणां प्रकल्प्यते । अत्र दोषमाह-न तदेव-युद्धथादिजननसामर्थ्य मेव, तत् अन्यत्रापि सामर्थ्यम् , अन्यस्यापि बुद्धयादित्वव्याप्तेः, इति उक्तहेतोः नाना=अनेक बुद्धिरूपादिजननसामर्थ्यम् । एव च-नानात्वे च, एकत्र एकस्वभावे रूपादौ, तत्-सामर्थ्यम् , कुतः ? नानासामथ्यस्वभावत्वेन सर्वथैकत्वविरोधात् ? ॥७॥
यह ज्ञातव्य है कि इन दोनों विकल्पों की चर्चा के प्रसङ्ग में जो सामग्रीघटक कारणों का एक देश में सन्निधान होना बताया गया है, उसका तात्पर्य किसी एक स्थानविशेष में प्राश्रित होना नहीं है क्योंकि क्षणिक वादी बौद्ध के मत में यह मानना संभव नहीं हो सकता कि कोई एक ऐसा स्थान होता है जहाँ किसो कार्यविशेष के विभिन्न कारण सन्निहित या उत्पन्न होते हैं। अत एव बोज दृष्टि से एक देश में विभिन्न कारणों के सन्निहित होने का अर्थ है देशकृतव्यवधान के विना विभिन्न मन्त्रावर्ती व्यक्तियों का भूतान होना । अत: प्रस्तुत प्रतिपादन में एक देश में सन्निधान होने के उल्लेख के सम्बन्ध में प्रसंगांत को शंका नहीं हो सकती।।
६६ वों कारिका से ७५ वीं कारिका तक सामग्री पक्ष के प्रथम विकल्प की प्रालोचना की गई है। अब ७६ वीं कारिका से दूसरे विकल्प को दृष्टिगत रख कर पक्षान्तर की चर्चा की जाती है । व्याख्याकार ने इस कारिका का व्याख्यान प्रस्तुत करते हुए इस विकल्प को मोल विकल्प कहा है जिससे निराकृत विविध पक्षों से इस विकल्प को दृष्टिगत रख कर निराकरणीय पक्ष का भेद स्पष्ट हो सके । का०७६ का अर्थ इस प्रकार है
(एक व्यक्ति में अनेक सामर्थ्य का असंभव) बौद्धों की और से यदि यह विकल्प प्रस्तुत किया जाय कि-रूप-मालोक-मनस्कार-वक्ष प्रादि के संनिधान रूप सामग्नी जिससे रूप विषयक बुद्धि का उदय होता है उस सामग्री घटक रूपावि प्रत्येक व्यक्ति में रूपादि के जनन का भी सामर्थ्य है और बुद्धि के जनन का भी सामर्थ्य है इसलिये उन कारणों के संनिधान रूप सामग्री के अनतर रूपविषयकबुद्धि का भी उद्भव होता है और रूपादि द्वारा अपने सन्तान में उत्तरवतों रूपादि का भी उद्भव होता है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि रूपादि में जो बुद्धयादिजनन का सामर्थ्य होगा यदि वही रूपाविजनन सामथ्र्य रूप मी है तो उस सामर्थ्य से उत्पन्न होने वाला कार्य तो बुद्धिरूप होता है अत: उस सामथ्र्य से उत्पन्न होने वाले रूप आदि में भी बुद्धिरूपता को प्रसक्ति होगी । अतः तद्वारणार्थ रूपादि कारणों में वृद्धि एवं रूपादि कार्यों के जनन का भिन्न भिन्न सामर्थ मानना होगा। और जब वे सब सामर्थ्य भिन्न भिन्न होंगे तो वह रूपादि एकेक व्यक्ति में कैसे रह सकेंगे ? क्योंकि सामर्थ्य रूप स्वभाव का मनेकत्व उन स्वभावों के प्राश्रय के ऐक्य का विघटन कर वेगा । वह इसलिये कि एकवस्तु का मनेक स्माष से सम्पन्न होना