________________
१६२ ]
[ शा० वा० समुच्चय ० ४ श्लो १०३-१०३
तद्धेतोरप्येवं निमित्तसमनन्तर हेतोरपि तज्ज्ञानात्-नालिकेरद्वीपवासिधूमज्ञानाद, सद्गतिः = अनलादिगतिः, तथा च व्यभिचार एवेति भावः ॥ १०१ ॥ परः समाधानान्तरमाह
तज्ज्ञानं यत्र वं धूमज्ञानस्य समनन्तरः I तथाभूदित्यती नेह तज्ज्ञानादपि तद्गतिः || १०२||
1
तज्ज्ञानम्=अग्निज्ञानम्, यद्यस्मात् वै निश्चितम् धूमज्ञानभ्य समनन्तरः = उपादानहेतुः, न तथाऽभूत् इत्यतो हेतोः इह = नालिकेरद्वीपवासिनि, तज्ज्ञानादपि -देवादग्निविषयक ज्ञानोत्थ धूमज्ञानादपि न तद्गतिः - नाडनलादिगतिः, तथा चाग्निज्ञानत्वेनाग्निगमकत्वात् न दोष इतिभावः ॥ १०२॥ अत्रोत्तरम् -
तथेति हन्त ? को न्वर्थस्तन्तथाभावतो यदि । इत रकम वेत्थं ज्ञानं तदूग्राहि भाव्यताम् ॥१०३॥
'न तथाऽभूत्' इत्यत्र ' तथा ' इति हन्त को न्वर्थः ? वाक्यार्थमविचार्यैव वाक्यं प्रयुञ्जानस्य महदनौचित्यमिति 'हन्त' इत्यनेन सूच्यते । यदि तत्तथाभावतः तस्यैः 15विज्ञानस्यैव तथाभावतो = धूमज्ञानमावेन परिणामो नाभूदिति नाग्न्यादिगनिरित्यभिमतम्,
[नालिकेर द्वीपवासी का समनन्तर प्रत्यय भी अन्य के समान ही है ]
नारिकेल द्विपवासी को धूमज्ञान के पूर्व जो केवल श्रग्निस्वरूप को ग्रहण करने वाला ज्ञान उत्पन्न होता है जैसे प्रयोगोलकीय प्रग्नि का या अंगार- श्रग्नि का प्रथवा सामुद्रिक वडवानल का ज्ञान उत्पन्न होता है. तज्ज्ञानरूपकारणकारक अर्थात् देववश तज्ज्ञानरूप कारण से उत्पन्न होनेवाला धूरुज्ञान शे दृश्यमान धूम के हेतुभूत अग्नि को विषय करनेवाले समनन्तर ज्ञान से विकल नहीं होता किन्तु उससे संनिहित ही होता है । प्राशय यह है कि नारिकेल द्वीपवासी का धूमज्ञान से पूर्व होने वाला निशान भी धूम के हेतुभूत अग्नि को ही विषय करता है भले उस व्यक्ति को अग्नि में धूमहेतुता का ज्ञान न हो किन्तु इतने मात्र से उसे ज्ञायमान अग्नि धूम का कारण नहीं है यह नहीं कहा जा सकता, श्रत एव उसका श्रग्निज्ञान भी धूमकारण प्रग्निविषयक ही है । तो इस प्रकार प्रग्निज्ञानरूप समनन्तर निमित्त हेतुक भी जो नारिकेल द्वीपवासी पुरुष का धूमज्ञान है उससे भी अग्नि का अनुमान नहीं होता। इसलिये बौद्ध कथित धूमहेतु प्रग्निज्ञानरूप समनन्तर कारण पूर्वक जो धूमज्ञान होता है वह अग्नि के अनुमान का हेतु है-' इस कार्य कारणभाव में व्यभिचार अनिवार्य है ।। १०१ ।।
१०२ कारिका में उक्त व्यभिचार का बौद्धाभिमत समाधान प्रस्तुत किया गया हैनारिकेल द्वीपवासो पुरुष का अग्निज्ञान धूमज्ञान का समनन्तर होते हुये भी तथा उपादान कारणात्मक ) समनन्तर नहीं है इसलिये उस पुरुष का धूमज्ञान यद्यपि देववश अग्नि विषयक ज्ञान से उत्पन्न है तो भी उससे अग्नि का अनुमान नहीं होता, क्योंकि अग्नि ज्ञानरूप समनन्तर उपादानपूर्वक धूमज्ञान हो अति के अनुमान का जनक होता है। अतः व्यभिचार रूप दोष नहीं हो सकता ।। १०२ ॥
१०३ वीं कारिका में बौद्ध के उक्त समाधान का उत्तर दिया गया है