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| स्या० क० टीका-हिन्दी विवेचना ]
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ननु न भावाऽभवनमेवाभाव भवनं यत्र कदापि न घटस्तत्र तदभवनेऽपि तदभावाSHवनादिति चेत् ? दर्वीकरवदनादयममृतोद्वारः येन स्वयमेव तुच्छत्वेऽप्यनुभवेन गले हीतो ऽत्यन्ताभावाद् नाशं विशेषयसि । तदिदमाह-यद् - यस्मादेवम्, तत् = तस्मात्, तथाधर्मके= ज्ञेयत्वादिस्वभावे, तस्मिन् अभवनं हि निश्चिनम्, उक्त विकल्पः तच्चाऽन्यत्वलक्षणः
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गुणकर्मायित्व और सत्ता उभयत्वावच्छेदेन गुणवमिवाभाव का होगा नहीं की जा सकती । क्योंकि घट में घटवद्देश निरूपितवृत्तित्व होने से एतद्देशवृत्तित्वाभाव में घटपटोभयत्वावच्छेद्यत्व एवं सत्ता में गुणवृत्तित्व होने से गुणकर्मान्यत्व और सत्ता उभयत्वावच्छेदेन अथवा सत्तात्वावच्छेदेन गुणवृत्तित्वाभाव नहीं रहता ।
यद्यपि हृद पर्वतोनं वह्निः इस बोध के एवं शिखर विशिष्टे पर्यंते न वह्नि इस बोध के प्रामाण्य के सर्व सम्मत होने से प्रतियोगों के अधिकरण में भी व्यासज्यवृत्तिधर्मावच्छ्रिाधिकरणताकाभाव और विशिष्टधर्मावच्छ्रिन्नाधिकरणताकाभाव माना जाता है. अतः घटवाले देश में घटपटी न स्त:' इस वाक्य की और 'गुणे न गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसत्ता' इस वाक्य की उपपत्ति की जा सकती है तथापि 'संयोगेन भवने न घट:' इस वाक्य के प्रामाण्य को आपत्ति का परिहार करने के लिए 'घटावपि संयोगत्वा वच्छेदेन भवनावृत्तित्व' और 'जातौ समवायेन न गगनम्' इस वाक्य के प्रामाण्य की उपपत्ति के लिए नत्रर्थ का द्विधा मान मानने पर जो 'जातौ समवायेन न गगनजाती' इस वाक्य के प्रामाण्य की अनुपपत्ति, अथवा 'घंटे सत्ता तद्भिन्नजाति न स्तः इस वाक्य के प्रामाण्य की प्रापति का उद्भावन किया गया है उसका परिहार नहीं हो सकता। इसलिए भूतले न घट:' इत्यादि वाक्य से 'भूतलवृत्तित्वाभाववान् घट' और 'घटाभावः भूतलवृत्तितावान्' इस प्रकार द्विविध बोध मानना ही उचित है। इस प्रकार 'भावो न भवति' इस वाक्य से 'प्रभावो भवति' इस बोध का जो सम्भव बताया गया है वह सर्वथा उचित है।
सच बात तो यह है कि श्रुतज्ञान के प्रयोजक क्षयोपशम को पटुता से समनियत पर्यायों में एक का मान होने पर अन्य का भान होना भी आवश्यक है | श्रतः भाव के प्रभवन का भान होने पर प्रभाव के भवन का भान अनिवार्य है । क्योंकि भावका प्रभवन और प्रभाव का भवन ये दोनों ही पूर्वक्षणवर्ती भाव के समान पर्याय है ।
( भाव का अभवन और प्रभावभवन के ऐक्य में शंका )
बौद्ध की ओर से यदि कहा जाय कि " माव का प्रभवन हो प्रभाव का भवन नहीं हो सकता क्योंकि जहां कभी भी घट उत्पन्न नहीं हुआ वहाँ घटका प्रभवन तो होता है । किन्तु वहां घटाभाव का मन नहीं होता है" तो यह कथन सर्प की जिह्वा से प्रभूत के उद्गार निकलने समान है। क्योंकि बौद्ध स्वयं नाश को तुच्छ मानने पर भी अत्यन्तानाव और नाश के विलक्षण अनुभव से गला पकड जाने के कारण नाश को अत्यन्ताभाव से भिन्न बता रहा है। इसी बातको प्रस्तुत १६ वीं कारिका के उत्तरार्ध में निष्कर्ष के साथ प्रस्तुत किया गया है