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[ शा वा ममुच्चय-स्त ४ श्लोक ३८
___ अथ सप्रतियोगिकत्वं प्रतियोग्यविषयकवुद्धिविषयत्वम् । तच्च तवापि नाभावस्य, इदत्यादिनाप्यभावप्रत्यक्षात , किन्न्वभावत्वभ्य, तस्य च ममापि तथात्वमेव, घटवद्भिनत्वरूपस्य तम्य घटधीमाध्यत्वादिति चेत् ? न, तद्धिमत्वस्यापि स्वरूपानतिरेकेणाप्रतियोगिकत्वात् , वस्तुतः प्रतियोग्यवृत्तिरनुयोगिवृत्तियों धर्मस्तजज्ञानस्य, प्रतियोगिवृत्तित्वेन अज्ञातधर्मग्रहस्य चामेदग्रहहेतुत्वेन, तस्य चात्र भेदरूपस्यैव संभवेनान्योन्याश्रयाच्च ।
[प्रभाव और भाव भिन्न हैं -नेयायिकपूर्वपक्ष ] जैनों द्वारा प्रस्तुत उक्त तों के सम्मुख बौद्ध के चुप हो जाने पर नयायिक ऊठ खड़े होते हैं और यह उद्घोष करते हैं कि तार्किक विचार में दुर्बल बौद्ध के मौनावलम्बन कर लेने पर भी जनों का मृषाभाषण हमें सह्य नहीं हो सकता क्योंकि माव से सर्वथा भिन्न अर्थात् भाव के किसी भी प्रकार के अन्यय से रहित प्रभाव को उपपत्ति हो सकती है। जिसे इस रूपमें प्रस्तुत किया जा सकता है कि अमाव भाव से भिन्न ही होता है। (=भाव के अन्धय से सर्वथा मुक्त ही होता है अर्थात् स्वप्रतियोगी के अनाधिकरण कालमें हो वृत्ति होता है ) क्योंकि किसी वस्तु के विनाश काल में वह बस्तु नहीं रहतो, किन्तु उसका प्रधिकरण मात्र रहता है। और यह प्रधिकरण उस नाशात्मकभाव का प्रतियोगी नहीं होता, प्रभाव सदेव सप्रतियोगिक रूप में ही अनुभूयमान होता है और अधिकरण अप्रतियोगिक होता है। अतः प्रभाव कभी भी अधिकरण स्वरूप नहीं हो सकता।
इसके विरद्ध जनोंको यह कहना हो कि-प्रभाव सप्रतियोगिक होता है, और प्रतियोगी के साथ विरोध होने से प्रभाव के बद्धिकाल में प्रतियोगी की वृद्धि न होने से, सप्रतियोगिकत्व का अर्थ है प्रतियोग्यविषयकबुद्धि का विषयत्व, और यह न्याय मत में भी क्वचित् प्रभाव में नहीं हो सकता है, क्योंकि इदन्त्व-शेयत्वादि के रूप में भी प्रभाव का प्रत्यक्ष होता है और यह प्रत्यक्ष प्रमाव के प्रतियोगी को विषय नहीं करता, इसलिए प्रभाव में प्रतियोगि-प्रविषयक बुद्धि विषयत्व प्रा जाता है। प्रत: मैयायिक मो उक्त अर्थ में प्रभाव को सप्रतियोगिक नहीं कह सकते, किन्तु प्रभावत्व को सप्रतियोगिक कहना पडेगा। क्योंकि, अभावत्व का ज्ञान प्रतियोगीविशेषित रूप में ही होता है। जैसे 'घटो नास्ति' पटो नास्ति' इत्यादि । इसप्रकार जब प्रभावत्व में ही उक्त सप्रतियोगीकत्व मान्य है.तो प्रभाव को प्रधिकरणस्य रूप माननेवाले हमारे मत में भी प्रभावत्व रूप से अधिकरण का ज्ञान भी प्रतियोगिविषयक हो होगा । इसलिए प्रतियोगि-विषयक बुद्धि विषयाव रुप सप्रतियोगिकत्व अधिकरण में मी है। अतः अधिकरण को अप्रतियोगिक कह कर उसमें सप्रतियोगिकत्वाभायरूपता की अनुपपत्ति बताना ठीक नहीं है । अभावत्व में प्रतियोगि-प्रविषयकद्धिविषयत्व रूप सप्रतियोगिकत्व प्रत्यन्त स्पष्ट ही है, जैसे-घटाभावत्व कास्वरूप है घटवद्भिन्नत्व, घटवत जो कपालादि तद्भिनरव और घटवद्भिन्नत्व स्वरूप घटाभावत्व का ज्ञान घटात्मक प्रतियोगी के ज्ञान विना असाध्य है अर्थात् घटज्ञान-साध्य है इस में कोई विवाद नहीं है।
तो नैयायिक को जैन का यह कथन मान्य नहीं है। क्योंकि तद्धिनत्व प्रधिकरण के स्वरूप से अतिरिक्त नहीं होगा तो अधिकरण अप्रतियोगिक होने से उसका भी प्रतियोगित्व अनिवार्यरूप