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स्या का टीका-हिन्दीविवेचना ]
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असत: एकान्ताऽसत्वेनाभिमतस्य, सच योगे त्वभ्युपगम्यमाने, तस्य-प्रमश्वेनाभिमतस्य, तथानियतरूपानुविद्धभविष्यत्तया, शक्तियोगत:-शक्तिमंबन्धात , नासत्वनाऽत्यन्तामन्यम् , तादृशस्य शशशङ्गवच्छरत्ययोगात् । मा भृव सादृशशक्तियोग इन्यत्राह -तदभावे तुनथाशक्त्यभावे स्वभ्युपगम्यमाने, तदन्यवत् अधिकृतव्यक्तिभिन्नवत् , न प्रतिनियतार्थक्रियाकारित्वरूपं सच्चम् . नियामकाभावात् ।।३९॥
अथ प्रतिनियतार्थक्रियाकारित्वं तद्वयक्तिस्वरूपमेव, तद्वयक्तरुत्पत्तिश्च नञ्जननशक्तिमतो हेतुविशेषादव, न हयेवं सत्कार्यापत्तिः, हेतुम्वरूपायाः शक्तः प्राक सरवेऽपि कार्यस्वरूपायाः शक्तेरभावात् , इत्याशङ्कते
[ उत्पत्ति के पूर्व वस्तु सर्वथा असत् नहीं होती ] ३६वीं कारिका में प्रभाव भाव नहीं हो सकता' इस पूर्वोक्त विषय के समर्थन का प्रारम्म किया गया है-कारिका का अर्थ इस प्रकार है-एकान्ततः जो प्रसत होता है उसमें सत्त्व का सम्बन्ध मानने पर उसमें सद्भवन को शक्ति माननी होगी कितु शाक्त मानन पर वह एकान्ततः असत् नहीं हो सकता । क्योंकि, एकान्त प्रसत में सद्धवन शक्ति नहीं होतो असे शशसींगमे । यदि उसके एकान्त असत्त्व की रक्षा के लिये उसमें सञ्जवन शक्ति का प्रमाव माना जायगा तो उपर्युक्त शक्ति से शून्य शशसींग प्रादि के समान उसमें सत्त्व अर्थात् प्रतिनियत प्रक्रिया का जनकत्व नहीं हो सकेगा क्योंकि उसका कोई नियामक नहीं होगा ।
(नियतकार्योत्पादनशक्तिरूप से कार्य सत्ता ) कहने का अभिप्राय यह है कि-जो विद्वान् वस्तु को उसको उत्पत्ति के पूर्व एकान्त असत् मानते हैं वे भी भविष्य में उसे नियतरूप (गुणधर्मों) से युक्त वस्तुके रूपमें स्वीकार करते हैं प्रतः उस रूपमें उद्त होने की शक्ति उसमें मानना आवश्यक है। क्योंकि, यह शक्ति जिसमें नहीं होती वह भविष्य में कभी भी नियत रूपसे युक्त वस्तु के रूप में बुद्धिगत नहीं होता। जैसे, शससींग प्रादि कभी मो नियतरूपसे सम्पन्न होकर बुद्धिगत नहीं होते। जब इस प्रकारको शक्ति उत्पत्ति के पूर्व वस्तु में मानी जायेगी तो उसे उत्पत्ति के पूर्व एकान्त असत् नहीं कहा जा सकता । क्योंकि जो प्रत्यन्त प्रसत् है वह उक्त प्रकारको शक्ति का प्राश्रय नहीं होता और यदि उसके एकान्त प्रसत्त्व को उपपत्ति के लिये उक्तशक्ति से शून्य मानेंगे तो उसमें सत्व का कोई नियामक न होनेसे सत्त्व की प्राप्ति न हो सकेगो। क्योंकि सत् नही होता है जो नियतकार्य का उत्पादक होता है । नियतकार्य का उत्पावक वही होता है जिसमें नियत कार्योत्पाविका शक्ति होती है । शक्ति का प्राश्रय यही होता है जो एकान्तत: असत् न हो। इसलिये उत्पत्ति के पूर्व असत् मानी जाने वाली वस्तु भविष्य में नियत कार्य का जनक उसी प्रकार न हो सकेगी जिसप्रकार उस नियतकार्य के उत्पादन में अधिकृत व्यक्ति से भिन्न व्यक्ति उसका उत्पादक नहीं होती ॥३६॥
४० वो कारिकामें बौद्ध की ओर से प्रसत्कार्यवाद के समर्थन की दृष्टि से एक प्राशन प्रस्तुत की गई है