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[ शा.बा. समुच्चय स्त०४-श्लो० ३६
तचिन्त्यम् , अभावस्याधिकरणबुद्धिरूपत्वे सूक्ष्मस्य केशादेर्जिज्ञासानुपपत्तः, घटनाशस्य बुद्धिरूपत्वे च तन्नाशे तदुन्मज्जनापत्तः, प्रतियोगिमद्भिन्नाधिकरणस्वाभावस्वरूपत्वे लाघवाच्चेति अन्यत्र विस्तरः । तस्माद् भावपरिणाम एवाभाव इति व्यवस्थितमेतत् 'भाचो नाभावमेति' इति ॥३८॥
अथ 'नाभावो भावतां याति' इत्येतद् व्यवस्थापयन्नाह - मलम-असनः सवयोगे तु तत्तथाशक्तियोगतः।
नासत्त्वं तदभावे तु न तत्सत्त्वं तदन्यवत् ॥३९।।
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भयाभाव अप्रसिद्ध होने से घटबद्भुतल में घटानवगाहो भूतलज्ञान संयोगसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक घटाभावरूप नहीं हो सकता।
प्राशय यह है कि 'पारोप सम्बन्ध सामान्ये' इत्यादि लक्षण का यह स्वरूप है कि यदधिकरण विशेष्यक यदुपलम्मापादकारोपविषय यत्सम्बन्धसामान्य में पदधिकरणानुयोगिकत्व-यत्प्रतियोगिकत्व उभयामाव हो तवधिकरणविषयक ज्ञान तत्सम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक तदभावरूप है ।
(प्रभाकरमत में दूषरणपरम्परा) प्रभाकर के उक्त मत के विरोध में व्याख्याकार का यह कहना है कि प्रभाव को अधिकरणज्ञानरूप मानने पर सूक्ष्म केशादि की जिज्ञासा नहीं हो सकेगी। प्राशय यह है कि केशविहीन मस्तक रूप अधिकरणविशेषमें इस प्रकार की जिज्ञासा का होना अनुभव सिद्ध है कि 'मस्तक में भी सूक्ष्मकेश अथवा केशाभाव का निर्णय हो'। यह इच्छा केश और केशाभाव का संकाय होने पर ही हो सकती है और यह संशय तभी हो सकता है अब केश और और केशाभाव में से किसी का निर्णय न हो । किन्तु यदि अभाव अधिकरण ज्ञानरूप होगा तो केशानवगाही मस्तकज्ञान हो केशाभाव होगा । प्रतः उस ज्ञान का निर्णय होनेपर केशामा निर्णीत हो जायेग! अत: क्रेश और केशामाव के संशय को अवसर नहीं होगा। फलत: 'केश अथवा केशाभाव का निर्णय हो' इस प्रकार की जिज्ञासा नहीं हो सकेगी।
दूसरा दोष यह है कि प्रभाव के अधिकरणज्ञानरूप होने पर घटनाश भी घटनाशाधिकरण कपाल की बुद्धि रूप होगा । अतः उस बुद्धि का नाश होने पर घटनाश का भी नाश हो जानेसे घटके पुनः अस्तित्व की आपत्ति होगी । और, तोसरी बात यह है कि प्रतियोगीमत् अधिकरण ज्ञान से भिन्न प्राधिकरण ज्ञान को प्रभावस्वरूप मानने की अपेक्षा प्रतियोगोमत भिन्न अधिकरण को प्रभाव रूप मानने में लाघव है । अतः अभाव प्रौर प्रधिकरण का ऐक्य स्वीकार्य हो सकता है, किन्तु अभाव और प्रधिकरण ज्ञान का ऐक्य स्वीकार्य नहीं हो सकता। इस विषयका विशेष विचार प्रन्यत्र किया गया है।
उपयुक्त युक्तिनों के प्राधार पर यह सिद्ध होता है कि प्रभाव भाव का एक परिणाम है । प्रत एव 'भाव प्रभाव नहीं होता' यह बात जो इस स्तबक को ११ वीं कारिकामें कही गई है उसमें कोई बाधा नहीं हो सकती ।। ३८॥