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स्था • टीका और हिन्दी-विवेचना ]
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सयाग्रहे च सर्वत्राऽधिनाभावग्रहं विना ।
न धूमादिग्रहादेव बनलाविगतिः कथम् ! ॥१८।। न च हेतुफालमात्र स्वरूपहा हेतु फलभाषिकल्प इति सांप्रतम् अतिप्रसङ्गात् ।
इत्याह-सर्वत्र तथाग्रहे च-सर्वत्र धार्ममात्रग्रहात् तत्स्वभावत्वविकल्पने च, अविनाभावस्य ग्रहो यस्मादिश्यविनाभावग्रहः सहचारादिज्ञानं तद् विना, धूमादिग्रहादेव धूमादिस्वरूपमात्रग्रहादग्न्यादिव्याप्तिविकल्पनादेव हि निश्चितम् , अनलादिगतिः अग्न्यायनुमानम् कथं न भवेत् ? । 'भवेदेवाभ्यासपाटयादिना क्वचिदिति चेत् ? अगृहीतसहचारस्य नालिका द्वीपबामिनोऽपि धूमदर्शनमात्रादग्निव्याप्तिविकल्पादग्न्यनुमानं किं न स्यात् ? ||८||
याथात्म्य-वस्तु को तपता में प्रमाण नहीं हो सकता । अन्यथा क्षणिकता भी अध्यक्ष से ही सिद्ध हो जायगी क्योंकि प्रध्यक्ष क्षणिकाव के धर्मो स्वलक्षण का ग्रहण करते हुये क्षणिकता का मी ग्रहण कर लेगा। एवं स्वर्ग प्रापक शुभ कर्म का ग्राहक अध्यक्ष उस कर्म में विधमान स्वर्ग प्रापण शक्ति का भो ग्राहक हो जायगा । जब कि यह बौद्ध को भी इष्ट नहीं है, क्योंकि वस्तु के क्षनिकत्व और शुभ कर्म के स्वर्ग प्रापणशक्तिमत्व को वे भी अनुमेय ही मानते हैं । साथ यह भी ज्ञातव्य है कि धर्मो ग्राहक जान से धर्म का भी ग्रहण मानने पर बौद्ध के इस सिद्धान्त का व्याघात भी होगा कि प्रध्यक्ष जिम विषय में गुण धर्म संज्ञा प्रादि के सम्बन्ध की कल्पनात्मिका-सविकल्प प्रत्यक्षाश्मिका बुद्धि को उत्पन्न करता है उस विषय में ही वह प्रमाण होता है क्योंकि धर्मग्राहक अध्यक्ष से यदि धर्मी के परिकल्पित रूप का मो प्रहण होगा तो परिकल्पित रूप की कल्पनारिमका बुद्धि का जनक न होने पर भी उस में प्रमाण हो आयगा । अतः उक्त सिद्धान्त का व्याघात स्फुट है ||७||
वौं कारिका में कार्य और कारण के स्वरूप ज्ञानमात्र से कार्य कारणभाव का ज्ञान होता है.इस बौध मत का प्रकारान्तर से भी अनौचित्य बताया गया है।
(नालिकेर द्वीपदासो को धूम से अग्निज्ञान नहीं क्यों 1 ) यदि सर्वत्र धर्मीमात्र के ज्ञान से उसके स्वभाव का मी प्रहण माना जायगा तो अविनामाव का ज्ञान जिससे होता है उस सहचारादि मान के न रहने पर भी धूम के मात्र स्वरूपज्ञान से धूम के अग्निव्याप्तिरूप स्वभाव का मी ज्ञान हो जायगा । तो यह प्रश्न हो सकता है कि जिसे धूम-अग्नि का सहबार मान एव तन्मूलक प्रविनाभाव का ज्ञान नहीं है उसे भी घूममात्र ज्ञान से अग्नि का अनुमान क्यों नहीं होता ? उसे भी धूम के ग्राहक ज्ञान से नौबमतानुसार उसके अग्निव्याप्तिरूप धर्म का ज्ञान हो ही जाता है । इसके उत्तर में यह कहना पर्याप्त नहीं है कि 'मम्याप्त पटुता प्रावि से प्रर्थात जिसे धूम ज्ञान से वह्नि को अनुमिति करने का अभ्यास हो जाता है और जसे देखते हो बलि के ज्ञान करने को पटुता उत्पन्न हो जाती है उसे धूम के स्वरूपमान मात्र से बलि का अनुमान होता ही है। क्योंकि प्रयासपार से मो अहाँ श्रम के स्वरूपज्ञान मात्र से वह्नि अनुमान का होना ज्ञात है वहां भी अनुमाता को ध्म में वहि व्याप्ति का ज्ञान हो कर के ही
हि का अनुमान होता है। व्याप्ति ज्ञान के बिना भी अगर उस स्थल में भी धूम स्वरूप के ज्ञान मात्र से वह्नि का अनुमान माना जाय तो यह प्रश्न स्वामाविक होगा कि नालिकेरखीप जहां धूम