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[शा०1० समुच्चय ४०४ श्लो०६९
अत्रेवाक्षेपं समाधानं चाह---
समनन्तरवैकल्यं सत्यनुपपत्तिकम् ।
तुल्ययोरपि तद्भावे हन्त ! क्वचिददर्शनात् ॥१९॥ 'सत्र-नालिकेरद्वीपवासीधूमादिज्ञानादग्न्याद्यगतिस्थले समनन्तरचैकल्यं स्यात् , एतदप्यनुपपत्तिकं नियुक्तिकम् । कुतः ! इत्याह-तुल्ययारप-समनन्तरयोः उत्तरं सद्भावे धूमादिग्रहोत्पादे, हन्त !! क्वचित-अगृहीताऽविनाभावे पुसि, तददर्शनातु-अनलाद्यननुभवात ||
ननु न समनन्तरत्वमात्रेण समनन्तरतौल्यमपेक्षितम् , किन्तु मह्यमाणकारणताश्रयकारणविषयत्वेन, इत्यभिप्रेत्य परः शङ्कते
और अग्नि के सहचारदर्शन का अवसर नहीं होता वहां के मनुष्य को मी [जिसे धूम-अग्नि का सहचार कमी ज्ञात नहीं हुआ है.) द्वोपान्तर में जाने पर धूम के स्वरूप दर्शन मात्र से अग्निव्याप्ति का ज्ञान होकर अग्नि का प्रनमान क्यों नहीं होता। क्योंकि जब धर्मों का प्रारक धर्म का भी ग्राहक होता है तब उस पुरुष को घूमरूप धर्मों के दर्शन होने पर उसके प्रग्निव्याप्तिरूप धर्म का भी ज्ञान प्रवश्य होना चाहिये ॥६८।।
६६ वी कारिका में उक्त वोष के सम्बन्ध में बौद्ध के आक्षेप का और उसके समाधान का उपदर्शन किया गया है
समनन्तर वैकल्य का उत्तर प्रयुक्त है] उक्त दोष के सम्बन्ध में बौद्ध का यह कहना है कि-'नालिफेर द्वीप के निवासी पुरुष को धूम के जान से जो अग्नि का अनुमान नहीं होता उसमें समनन्तर बैंकल्य कारण है।'
कथन का प्राशय यह है कि उक्त पुरुष का जो धमज्ञान समनन्तरअग्निज्ञान रूप कारण से उत्पन्न होता है यही वूम में उसके अग्निव्याप्तिरूप धर्म का ग्राहक होने से अग्नि का अनुमापकं होता है । उक्त पुरुष के बूम जान में अग्निज्ञानरूप समनन्तर कारण का वैकल्य है अर्थात् वह अग्निज्ञानरूप समन्तर कारण से उद्भूत नहीं है अतः उससे धूम में अग्निव्याप्ति रूप धर्म का ज्ञान न होने से उस धूम ज्ञान से अग्नि का अनुमान नहीं होता। इस पर ग्रन्थकार का कहना है कि बौद्ध का यह कहना भी उपपत्तिशून्य यानी नियुक्तिक है। क्योंकि जहाँ अग्निज्ञान के उत्तरकाल में धूमझान होता है यहाँ समनन्तर अग्निज्ञान का संनिधान रहने पर भी जिस पुरुष को धूम में अग्नि का प्रविनामाव ज्ञात नहीं होता उसे धूमजान मात्र से प्रग्नि का मान नहीं होता । जैसे किसी नालिकेरद्वीपबासी पुरुष को तपे हुए लोहगोलक-प्रकार प्रादि में या समुद्र में धूम के बिना केवल अग्नि का दर्शन हुना और जसके बाद धूम का दर्शन हुना, उसका नमदर्शन समनन्तर अग्निज्ञान पूर्वक है, फिर भी उसे धूम में वह्निव्याप्तिग्रह न होने के कारण धूम के स्वरूपदर्शन मात्र से अग्नि का अनुमान नहीं होता। प्रतः पूर्वोक्त दोष के सम्बन्ध में बौद्ध का उक्त प्राक्षेप प्रयुक्त है ॥६
१०० बों कारिका में उक्त समाधान के सम्बन्ध में बौद्ध का एक अन्य अभिप्राय प्रदर्शित किया गया है। उसका कहना है कि दो समनन्तर प्रत्यय में मात्र समनन्तरत्व की तुल्यता का कोई