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[शा. वा. समुच्चय स्त.-४ श्लोक-६५
अथ विशेषणमंबन्धनिमित्तका इति साध्यं, हेतौ च सत्यत्वं विशेषणम् , तेन विशिष्ट भ्रमे न व्यभिचारः, बुद्धिपदं च प्रत्यक्षपरम् , तेन नांशतो वाघ-व्यभिचाराविति समवासिद्धिरिति चेत् ? न, गुणादिविशिष्टप्रत्यक्षे विशेषणसंबन्धत्वेन न हेतुत्वम् , संवन्धत्वस्य विषय
होता है। इस अनुभव से पूर्वजात घट प्रत्यक्ष की अपेक्षा उत्सरजात घटप्रत्यक्ष में विषयमेवकी सिद्धि होतो है क्योंकि वहां सामग्री का लक्षण्य नहीं है । दोनों घटो को प्रत्यक्ष सामग्री अंतर्गत जितने कारण हैं ये सब समान रूपसे ही कारण है. अतः वहां सामग्री वलक्षण्य प्रसिद्ध है । सामग्रीवलक्षण्य सामग्रीचटकतावच्छेदक के लक्षण्य से होता है। प्रतः जैसे विभिन्न घट की सभी सामग्री में वण्डस्वचक्रत्व प्रादि रूपसे विभिन्न दण्ड-चक्रादि का प्रवेश होने पर भो उनमें बलक्षण्य नहीं माना जाता । उसो प्रकार घटद्वय के प्रत्यक्ष में चक्षसनिकर्ष-मालोक घट इन समी के समान रूपसे कारण। सन दोनों घट की प्रत्यक्ष सामग्री में मी वलक्षण्य नहीं माना जा सकता । प्रतः जिस प्रतीति में विषयभेद का साधक अनुभव या सामग्रीवल प्य नहीं है उनमें केवल लाघव से विषयमेव नहीं सिद्ध हो सकता है।
[ विशिष्ट बुद्धि में सम्बन्धाऽविषयकता को आपत्ति ] यदि साघव से मुकियादिविशिष्ट बुद्धिको विशेषण-विशेष्य मतिरिक्त सम्बन्ध विषयक माना जायेगा तो जिस अनुमान से इस सिद्धि की प्राशा की जाती है , उसी अनुमान से लाधव के प्राधार पर उक्त बुद्धि में सम्बन्धाऽविषयकत्व की ही सिद्धि हो जायगी । प्राशय यह है कि कोई विशिष्दबुद्धि विशेषण-विशेष्य प्रतिरिक्त सम्बन्धविषयक होती है, जसे 'घटवाला भतल' इत्यादि बुद्धि,
और कोई विशेषण-विशेष्य अतिरिक्त सम्बन्ध विषयक नहीं भी होती जैसे-'घटामात्रवाला मतल' इत्यादि बुद्धि । उसो प्रकार गुणक्रिपाविशिष्ट बुद्धि सम्बन्धाऽविषयक होकर भो विशिष्टबुद्धि हो सकती है।
कहने का प्राशय यह है कि विशिष्टद्धित्व में विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध विषयकत्व के व्याप्ति का ग्राहक अनुकूल तर्क न होने से उक्त व्याप्ति प्रसिद्ध है। प्रत्युत्त, विशिष्ट द्धित्व को विशेषण विशेष्य सम्बन्ध विषयकत्व का व्यभिचारी मानने में लाघव है। क्योंकि गुण-क्रियादि विशिष्टबद्धि सम्बन्धाऽविषयक होने पर भी विशिष्ट बुद्धि हो सकती है। अतः गुण-क्रियादि विशिष्टबुद्धि में विशेषण-विशेष्य सम्बन्ध विषयकत्व साधक प्रयास उक्त बुद्धिमें सम्बन्धाऽविषयकस्व की सिद्धि में पर्यवसित होता है -यह मानना अनिवार्य है।
('विशेष्य-विशेषण सबंधनिमित्तकस्व-साध्य में नेयायिक परिष्कार) यदि यह कहा जाय कि"साध्य विशेष्यविशेषणसम्बन्धनिमित्तकत्व है-अर्थात् यह अनुमान अभिप्रेत है कि गुराक्रियादिविशिष्टद्धि विशेषण-विशेष्यसम्बन्धजन्य है। चूंकि वह विशिष्टबुद्धि है। मो भी विशिष्ट बुद्धि होती है ह विशेषणविशेष्य संबन्धजन्य होती है । जेसे 'दण्डवाला पुरुष' यह विशिष्टबुद्धि दण्ड और पुरुष के संयोग सम्बन्ध से अन्य होती है। यदि विशिष्ट बुद्धि को विशेषणविशेष्य सम्बन्धजन्य न माना आयगा तो दण्ड और पुरुष के बीच संयोगसम्बन्ध को प्रसत्त्व दशा में मी 'दण्डवाला पुरुष इस बुद्धि को प्रापत्ति होगी। प्रतः विशिष्टबुद्धि में विशेषरणविशेष्यसम्बन्ध मन्यत्म का नियम होने से उक्त अनुमान से यह सिद्ध होगा कि गुर्णाकयादि विशिष्टबुधि भी