________________
स्या० २० टीका-हिन्दी विवेचना ]
किञ्च, प्रतीतेविषयभेदोऽनुभवात् सामग्रीभेदाद वा न तु लाघवात् , अन्यथा सविषयवानुमानात् सम्बन्धाऽविषयत्वमेय मिष्यदिति । अनेक सम्बन्धविषयक मानना होगा क्योंकि भूतल में अनेकवार घटका प्रानयन- अपनयन करने पर घटका संयोग बदल जाता है, किन्तु सभी दशा में 'मूतलं घटयत्' इस एक हो प्राकार की बुद्धि होती है। किन्तु यदि उक्त बुद्धिको भूतल के साथ घटसमायविषयक माना जायेगा तो घटके अनेक बार प्रानयन-अपनयन करने पर भी उसमें परिवर्तन न होने से 'घटवद् भतल' इस प्राकार की सभी बुद्धियों में एकसम्बन्धविषयकब होने से लाघव होगा। इस प्रकार द्वस्य का अपने संयोगी प्रधिकरण के साथ भी समयाय सम्बन्ध सिद्ध होने को प्रापत्ति होगी।
यदि यह कहा जाय कि "संयोग अनेक होने पर भी उसमें संयोगत्वावच्छिन्न एकसम्बन्धता की हो कल्पना होता है । संयोग सम्बन्ध कल्पनीय नहीं होता, वह तो प्रत्यक्ष सिद्ध रहता है केवल उसमें संसर्गता की कल्पना करने की जरुरत रहती है, किन्तु सम्बन्धान्तर समवाय को कल्पना करने पर सम्बन्ध और सम्बन्धता दोनों की कल्पना करनी पड़ती है। इसलिये भूतलादि के साथ घटादि का समयायसम्बन्ध मानने में लाधव न होकर प्रत्यक्षसिद्ध संयोग को हो सम्बन्ध मानने में लाघव है।
लाधव वैपरीत्य के कारण भतलादि के साथ घटादि का समवाय सम्बन्ध नहीं सिद्ध हो सकता, फिर भो गुण-गुणो के बोध समयाय सम्बन्ध सिद्ध होने में कोई बाध नहीं है । क्योंकि वहां लाघव परीत्य नहीं है। क्योंकि, गुण गुणी के मध्य स्वरूपसम्बन्ध मानते पर गुण-गुणी दोनों के स्वरूप का कोई अनुगत धर्म न होने से भिन्न भिन्न रूपसे दो सम्बन्धता माननी पडेगी और गुण-गुणी के बीच समवायसम्बन्ध मानने पर एक मात्र समाय को ही कल्पना करनी होगी। उसमें संसर्गता सिद्ध करने का पृथक प्रयास नहीं करना होगा, क्योंकि वह गुण-गुणो के सम्बन्ध रूपमें ही सिद्ध होता है । अत: उसकी संसर्गता धर्मी ग्राहक प्रमाण से सिद्ध है-"।
तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि गुण-गुणी दोनों के स्वरूप में वस्तुत्व सत्तादि अनुगत धर्म विद्यमान है। प्रतः उन दोनों के स्वरूपमें वस्तुत्वादि अवच्छिन्न एक संसर्गता की कल्पना हो सकती है । इसके विरुद्ध यह शङ्का नहीं की जा सकती कि 'सम्बन्धता तो केवल गुण-गुणी के स्वरूप में है और वस्तुत्य अन्योन्य अनंत स्वरूप में रहता है इसलिये प्रतिप्रसक्त है । अत एव वह संसर्गतावच्छेदक नहीं हो सकता क्योंकि सम्बन्धता विषयतारूप है और विषयता प्रतिप्रसक्त धर्म से मो प्रवछिन्न होतो है । जैसे घट और भूतल का संयोग एक होने पर भी 'घटवाला भूतल' इस ज्ञानको संयोग निष्ठ विषयता संयोगत्वरूप प्रतिप्रसक्त धर्म से भी प्रवच्छिन्न होती है।
[ विषयमेव को सिद्धि में लाघव अप्रयोजक ] इसके अतिरिक्त यह मी ज्ञातध्य है कि प्रतीति के विषयका भेद या तो अनुभव से सिद्ध होता है या सामग्रीवैलक्षण्य से सिद्ध होता है । जैसे 'घट-घटत्वे 'पट-पटत्वे' इस निर्विकल्पकों में विषय भेद की सिद्धि उन निविकल्पकों की सामग्री के मेव से होती है, अनुमयभेद से नहीं क्योंकि निविकल्पक अतीन्द्रिय होता है। अनुभवमेद से विषयभेद उन प्रतीतियो में सिद्ध होता है जो समान सामग्री से उत्पन्न होकर भी विभिन्न विषयों को ग्रहण करती है । जैसे जहां एक देश में अवस्थित दो घटों का कमसे प्रत्यक्ष होता है तब “एक घट को देखकर दूसरे घट को देखता हूँ" ऐसा अनुभव