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स्वा० क० टीका-हिन्दीविवेचना ]
तत्वव्यवस्थिते:- स्वलक्षणाध्यक्षस्वरूपोपपत्तेः सम्भवात् । त्रैलोक्याऽसंनिकर्षात् कथं तयपादानम्' ? इति चेत् १ अभिप्रायाऽनभिज्ञोऽसि स्वलक्षणस्यैव त्रैलोक्यात्मकत्वापादनात्, 'इतरग्रहप्रतिबन्धकल्पनापेक्षयेतराग्रहस्यैव कल्पने लाघवमिति चेत् ? तदाऽसत्रस्याऽप्यग्रह एवं कल्प्यताम् किं समारोपेण तनिश्चयप्रतिबन्धकल्पनया ! |
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यद्वा, परमार्थतोऽसद्दशानामपि भावानां समारोपबलेन तादृशविकल्पोत्पादकदर्शनहेतुत्वे स्वयमनीलादिस्वभावानामपि भावानां नीलादिविकल्पोत्पादक दर्शन हेतुत्वसम्भवाद् निर्धर्मकमेवास्तु स्वलक्षणम्, तथा च सर्व-धर्माभावाद् निरवशेषमित्यर्थः, नत्रोऽप्रश्लेषाद् निश्चय:- मितनिश्चयः पुनर्मितग्रहसमारोपाद् - नियतवासनाप्रबोधात् इति व्याख्येयम् । वासनाप्रवोध नियमेऽप्यनुभवस्यैव नियामकत्वाद् नायं दोष' इति चेत् १ तह्यत्यन्तासति विषये कथं वासनास्वीकारः ! ' समनन्तरा-समनन्तरविक्रम्पविभागाऽर्थं वासना भेदस्वीकाराद् न दोष' इति चेत् ? सोऽपि किमर्थम् ? 'परम्परया संवादा ऽसंवाद नियमार्थमति चेत् १ तहिं साक्षादेव तदभ्युपगमोऽस्तु किमीशकुसृष्टया ? इति दिक् ||२४||
विबौद्धों की ओर से यह कहा जाय कि 'सम्पूर्ण वस्तु के साथ सन्निकर्ष न होने से प्रसद्रूप में सम्पूर्ण वस्तु के ग्रहण का श्रापादान नहीं हो सकता तो उनका यह कथन आपादक के अभिप्राय के अज्ञान का हो सूचक होगा क्योंकि प्रापादक का अभिप्राय सम्पूर्ण वस्तुग्रहण के आपादन में नहीं है किन्तु जो कोई एक स्वलक्षरण वस्तु निविकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा गृहोत होती है उसीमें सम्पूर्ण जगत् के परिसमाप्त हो जाने में है। यदि पुनः उसके उत्तर में बौद्ध की प्रोर से यह कहा जाय कि 'इस आपादान में सन्निकृष्ट स्वलक्षणवस्तु से अतिरिक्त वस्तु के ज्ञान का प्रतिबन्ध फलित होता है । किन्तु इतर वस्तु का ज्ञान नहीं होता" इस कल्पना में लाघव है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसी कल्पना करने पर सत्त्व के आरोप से असत्त्व निश्चय के प्रतिबन्ध की कल्पना भी उचित नहीं होगी, किन्तु सत्य के ग्रह की कल्पना ही उचित होगी । अतः ज्ञेयत्व को प्रसत्य का स्वभाव न मानने पर असत्त्व के परिच्छेद की अनुपपत्ति जो बतायी गई थी वह तववस्थ रहेगी । फलतः जैसे ज्ञेयश्व प्रसव का स्वभाव होगा उसी प्रकार उसमें कारणबनसे सद्भूवनलक्षण स्वभाव की प्रापति का परिहार भो नहीं हो सकेगा ।
[ स्वलक्षण में निर्धर्मकत्व का प्रतिप्रसङ्ग ]
श्रथवा इस पूरी कारिका को पूर्व कारिका में संकेतित प्रतिप्रसङ्ग के स्पष्टीकरण में ही न लगा कर अन्य प्रकार से भी व्याख्या की जा सकती है । जैसे यह कहा आ सकता है कि "गृहीसं सर्वमेतेन तत्वतः " अंश से प्रतिप्रसङ्गका स्पष्टीकरण किया गया है और निश्चय: पुर्नामग्रहसमारोपात्' इस भाग से बौद्ध द्वारा प्रतिप्रसङ्ग के समाधान की प्राशङ्का की गई है, और प्रतिम अंश से उसका निराकरण किया गया है। आशय यह है कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से असत्त्व के ग्रहण का बौद्ध द्वारा समर्थन करने पर जैन द्वारा यह प्रतिप्रसङ्ग बताया गया कि 'असत्व निश्चय के बिना भो प्रसत्त्व कर ग्रहण मानने पर असदूप से सम्पूर्ण जगत् का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से ग्रहण हो जायेगा, पसः