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[ शा.बा. समुरुचय स्त८५-श्लो०२४
समारोपाद् न शुक्तिनिश्चयः ! तत्त्वतस्तु तत्-असच्चम् गृहीतम् अध्यक्षण परिच्छिन्नम् , तस्य अध्यक्षस्य यथाभावग्रहात्-प्रतिनियतधर्मकम्बलक्षणग्राहित्वात् , तहलेनैव तदुत्पत्तेः, अन्यधर्मानुकरणे भ्रान्तत्वप्रसङ्गात , तद्धर्माननुकरणे चानुत्पत्तरेवेति । अत्र यद्यपि वस्तुनो निवृत्तिधर्मकल्पविद्धायध्यक्षस्य तग्राहियसिद्धिः, तस्स समाहित्यसिद्धौ च वस्तुनस्तथात्वसिद्धिः, अनुमानेऽपि प्रत्यक्षस्य मूलत्वात् , इति स्फुट एवान्योन्याश्रयः, तथाऽप्युत्कटदोषान्तरमाह-अदोऽप्यतिप्रसङ्गादसत्-अकिञ्चित्करम् ।।२३।। तथाहि
मूलम्-गृहीतं सर्वमेतेन तत्वतोऽनिश्चयः पुनः ।
मितग्रहसमारोपादिति तत्त्वव्यवस्थितेः ॥२४॥ गृहीतं सर्व-त्रैलोक्यम् , एतेन अध्यक्षेण, तत्वतः परमार्थतः, अनिश्चयः पुनः सर्वविषयः मितग्रहसमारोपात यावद् यत्र निश्चीयते तावत एव तत्रारोपात् , इति एवं
के प्रारोप से अनवेशयी वस्तु में शुक्तित्व का निश्चय प्रतिबद्ध हो जाता है। किन्तु सत्यनिवृत्ति वस्तु का वास्तविक स्वरूप है। अत एव निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से उसका ग्रहण होता है। क्योंकि निर्विकल्पक का यह स्वभाव होता है कि वह जिस वस्तु का जो धर्म होता है, उस धर्म के द्वारा हो वह स्वलक्षण यानी वास्तविक वस्तु को ग्रहण करता है, क्योंकि वस्तु के बल से हो अध्यक्ष को उत्पत्ति होती है। यदि प्रत्यक्ष अन्य वस्तु के भी धर्म को ग्रहण करेगा तो भ्रम हो जायेगा, और वस्तु के वास्तविक धर्म को ग्रहण न करेगा तो उसकी उत्पत्ति ही न हो सकेगी।
यद्यपि इस बौद्ध समाधान में अन्योन्याश्रय स्पष्ट है। क्योंकि वस्तु में नित्तिधर्मकत्व सिद्ध हाने पर हो निविकल्पक से उसका ग्रहण सिद्ध हो सकता है। और निर्विकल्पक से उसका ग्रहण सिद्ध होने पर ही वस्तु में निवृत्तिधर्मकत्व को सिद्धि हो सकती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि निषतिधर्मकत्व की सिद्धि अनुमान से होगी। क्योंकि अनुमान भी प्रत्यक्ष-मूलक ही होता है। अतः ग्रन्धकार द्वारा इस अन्योन्याश्रय का उद्भायन उचित था, किन्तु ग्रन्थकार ने इसकी उपेक्षा इसलिए की है कि उसके सम्मुख बलवत्तर दोष उपस्थित था और वह दोष प्रतिप्रसङ्ग है । जिसे अग्रिम कारिका में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया गया है ।।२३।।
[निविकल्प से त्रैलोक्यग्रह को प्रसक्ति] २४ वीं कारिका में पूर्व कारिका में संकेत किये गये प्रतिप्रसङ्ग को स्पष्ट किया गया है, जो इस प्रकार है वस्तु की सनिवृत्ति का यदि उसके निश्चय के बिना भी निविकल्पक प्रत्यक्ष से ग्रहण माना जायेगा तो निश्चय के बिना भी सम्पूर्ण त्रिलोकवत्ती वस्तु का, निर्विकल्पक-प्रत्यक्ष द्वारा प्रसद्प में ग्रहण होने का प्रतिप्रसङ्ग होगा। क्योंकि जिस वस्तु में जिसने धर्मों का निश्चय होता है उतने ही धर्मों का उसमें मारोप माना जाता है। प्रसत्त्व का निश्चय किसी वस्तु में नहीं होता, अत एव किसी वस्तु में असत्त्व का आरोप नहीं माना जाता । फलतः असत्त्व सम्पूर्ण वस्तु का अनारोपित-वास्तविक रूप होगा। प्रत एव सम्पूर्ण वस्तु का प्रसत्व रूप से निर्विकल्पक द्वारा ग्रहण का प्रतिप्रसङ्ग दुनिवार्य है।