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स्या० का टीका-हिन्दी विवेचन ]
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यत एवं तेन कारणेन तद्गतिः सत्चनिवृत्तिगतिः। यद्यप्येवमपि तदधर्मभूतनिवृत्तभ्रमविषयतयापि शेयत्वस्वभाववत् कार्यत्वस्वभावोऽविरुद्ध एव, तथापि वस्तुस्थित्या समाधानमाह-नतद् -यदुक्तं परेण 'प्रत्यक्षेणैव सच्चानिवृतियते' इति । कुतः १ इत्याह क्वचिदनिश्चयात प्रतीत्यभावेन क्वाप्यनिश्चयात् । यद्वा, क्वचित्-सभागसंततानिश्चयात् , निश्चय एव मध्यक्षकल्पका, यथा नीलादिनिश्चयात् तदध्यक्षकल्पनम् । अन्यथा दानहिंसाविरतिचेतसा स्वर्गप्रापणशक्तेरप्ययक्षत एवायसितेने तत्र विप्रतिपत्तिः, इति तद्वय दासार्थमनुमानप्रवर्तनं शास्त्रविरचनं वा धैयर्थ्यमनुभवेत् ॥२२॥ पराभिप्रायमाशङ्कयाह--
मूल-समारोपादसौ नेति गृहीतं सत्यतस्तु नत् ।
यथाभावग्रहासस्यातिप्रसङ्गाददोऽप्यसत् ॥२३॥ समारोपात-तुल्यसत्त्वाध्यारोशात , असी सत्यनित्तिनिश्चयः न, यथा रजत
[ सत्त्वनिवृत्ति प्रत्यक्षसिद्ध नहीं है ] बावीसवीं कारिका में सत्त्वनिवृत्ति के सम्बन्ध में बौद्ध का अभिप्राय प्रस्तुत कर के उसका निराकरण किया गया है। सत्त्व को आश्रय भूत सवस्तु स्वभावत: निवृत्तिधर्मक होती है, क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा वह सद् वस्तु निवृत्तिधर्मकरूप में गृहीत होती है । सत्त्वनिवृत्ति का परिच्छेद भी इसीलिए हो सकता है। यद्यपि निवृत्ति को असत्व का धर्म न मानने पर भी भ्रम द्वारा उसमें यश्वस्वभाव हो सकता है। इसी प्रकार कार्यत्व को उसका स्वभाव मानने में कोई विरोध नहीं है, इसलिए निवृत्ति को उसका धर्म बताने की प्रावश्यकता नहीं है । तथापि वस्तुस्थिति के अनुरोध से ऐसा समाधान किया गया है । इस समाधान के सम्बन्ध में ग्रन्थकार का कहना यह है कि सत्त्वनिवृत्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण से ग्रहण नहीं हो सकता । क्योंकि उसका सविकल्प निश्श्रय अर्थात् प्रत्यक्ष कहीं सिद्ध नहीं है। अथवा सभागसन्तान में कहीं उसका निश्चय नहीं है। प्रौर निश्चय ही निर्विकल्पक का अनुमापक होता है। जैसे, नीलादि के निश्चय से नीलादि के निविकल्पक की कल्पना होती है । जिस विषय का निश्चय नहीं होता यदि उसका भी प्रत्यक्ष माना जायगा तो जिस पुरुष का चित्त दान और अहिंसा में संलग्न है, उसकी स्वर्गप्रापक शक्ति का भी प्रत्यक्ष प्रमाण से ही ज्ञान हो जायगा । अतः उस विषय में कोई विरोध संभवित न होने से विरोधनिराकरण के लिए स्वर्ग प्रापण शक्ति का अनुमान प्रौर उसके प्रतिपादन के लिए शास्त्र की रचना व्यर्थ हो जायेगी ।२२।।
[समारोप के कारण सत्त्वनिवृत्तिग्रह न होना प्रयुक्त है] २३ वी कारिका में पूर्वकारिका गत प्राक्षेप के सम्बन्ध में बौद्ध के अभिप्राय को प्रस्तुत कर के उसका प्रतिकार किया गया है । बौद्ध का कथन यह है कि वस्तु के सत्त्व की निवृत्ति मानने पर भी उसका निश्चय इसलिए नहीं होता है कि उसमें सत्त्व का प्रारोप होता है। यह आरोप ही सत्त्वनिवृत्ति के निश्चय का बाधक हो जाता है। क्योंकि सत्त्व और असत्त्व में विरोध है, और एक विरोधी धर्म का मारोप दूसरे विरोषी धर्म के निश्चय का प्रतिबन्धक होता है। जैसे शुक्तित्व के विरोधी रखतस्व