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श्या० क० टीका-हिन्दीविवेचन ]
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__न, तत्र तवृत्तितानियामकत्वं हि तत्र तद्विशिष्टबुद्धिजनकत्वम् । अम्ति व वायावपि 'इह रूपा' इति धीः, सदभावनामवादिनापि नत्रावश्यं तत्स्वीकारात् । 'साऽऽगेपरूपा, न तु अमेति चेत् ? न, 'तदभावधियः भत्यत्वाऽसिद्धौ तदप्रमात्वाऽसिद्धः' इति मिश्रेणेवोक्तत्वात् । प्रतियोगित्वादेग्नतिरेकेण तदनुयोगितानिरूपिततत्प्रतियोगिताकवैशिष्ट्यस्य तत्र नवृत्तिनियामकत्वस्य चक्तुमशक्यत्वात् ।
नियम है तो इससे समवाय की सिद्धि में कोई बाधा नहीं हो सकती क्योंकि रूप समवाय वायु में रूप वृत्तिता का नियामक नहीं है। इसलिये वायु में रूप समवाय के रहने पर भी रूपाधिकरणता की मापत्ति नहीं हो सकती"--
[तवृत्तितानियामकत्व का अर्थ है तद्विशिष्टबुद्धि का जनकत्व] किन्तु नैयायिक का यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि वायु में रूपाधिकरणता का वारण करने के लिये नैयायिक को यह मानना होगा कि जिसमें जिस वस्तु की वृत्तिता का नियामक सम्बन्ध रहता है उसो में वह वस्तु होती है और तद्वस्तु में तद्वस्तु की वृत्तित्तानियामक का अर्थ होता है तद्वस्तु में तविशिष्टबुद्धि का जनक । फलतः, वायु में भी 'इह रूपम्' इस प्रकार रूप की विशिष्टबुद्धि होती है अतः समवाय वायु में रूपविशिष्टबुद्धि का जनक होने से वायु में रूपवृत्तिता का नियामक होगा, इसलिए समवायपक्ष में वाय में रूपाविधिकरणता को आपत्ति का परिहार नहीं हो सकता।
(वायु में 'इह रूपं बुद्धि के प्रामाण्य की उपपत्ति) यदि यह कहा जाय कि 'नयायिक के मत में वायु में -इह रूपम्-यह प्रतीति प्रसिद्ध है तो यह कहना ठीक नहीं हो सकता क्योंकि नैयायिक वायु में रूपाभाव का प्रत्यक्ष मानते हैं और उस अमाव के प्रत्यक्ष में योग्यानुपलब्धि सहकारिकारण होता है। योग्यानुपलब्धि का अर्थ होता है योग्यताविशिष्टानुपलब्धि और योग्यता का अर्थ है जिस प्रधिकरण में प्रभाव का प्रत्यक्ष करना है उस अधिकरण में प्रतियोगो के प्रारोप से प्रतियोगी की उपलब्धि का आरोप । अत: वायु में रूपाधिकरणता को प्रापसि का वारण शक्य नहीं है। इसके उत्तर में नैयायिक को प्रोर से यह कहा जाय कि"वायु में होनेवाली 'इह रूपम्' यह प्रतोति प्रारोपात्मक है और तद्वस्तु में तस्तु की विशिष्ट प्रमा का जनक सम्बन्ध ही तस्तु को वृत्तिता का नियामक होता है। प्रतः समवाय वायु में रूपवृत्तिता का नियामक नहीं हो सकता" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पक्षधरमिने यह कहा है कि प्रभाव को धुद्धि में प्रमात्य की सिद्धि न होने पर हो तबुधि में अप्रमाद को सिद्धि होती है। समवायसाधन के पक्ष में वायु में रूपाभाव सिध नहीं रहता अत एव वायु में रूपाभाष की बुद्धि को प्रप्रमा नहीं कहा जा सकता। जब वायु में रूपाभाव की बुद्धि में अप्रमात्व प्रसिद्ध है तो वायु में 'इह रूपम्' इस बुद्धि को अप्रमा कहना उचित नहीं हो सकता। ___यदि यह कहा जाय कि-'तनिष्ठानुयोगिता निरूपितसन्निष्ठप्रतियोगिताक वैशिष्टच ही तद्वस्तु में तद्वस्तु की वृत्तिता का नियामक होता है । समयाय में वायुनिष्ठ अनुयोगिता निहपित हनिष्ठ प्रतियोगिताकत्व नहीं है । अत एव समवाय वायु में रूपवृत्तिता का नियामक नहीं हो सकता' तो यह