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[ शा. वा. समुच्चय रत०-४ श्लोक-६५
रूपाभावादेव नीरूपत्वम् इति चिन्तामणिकृतोक्तम्, तदसत् प्रतियोगि संबन्धसत्त्वे तत्संबन्धावच्छिन्नाभावायोगात् ।
अथ प्रतियोमिसंबन्धयेऽपि तद्वत्ताया अभावात् तत्र तदभावाऽविरोधः । न च तत्संबन्धस्तद्वत्तानियतः गगनायसंयोगे व्यभिचारात् । न च 'वृत्तिनियामक' इति विशेषणाद् न इति वाच्यम् करवृत्तितानियामककपालसंयोगवति कपाले कपालामा सन्वेन व्यभि चारात् । यत्र तद्वृत्तितानियामक: संबन्धः तत्र तद्वत्वनियम' इति चेत् १ तर्हि रूपसमत्रायस्य वायुवृत्तित्वानियामकत्वादेव वाय न तद्वयम् इति चेत् १
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(रूपो - प्ररूपी व्यवस्था की समवायवाद में श्रनुपपत्ति)
उसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि पृथिव्यादि द्रव्य रूपवान् है और वायु प्रादि श्रव्य नीरूप है। इस व्यवस्था की उपपत्ति समवाय से नहीं हो सकती उसके लिये रूपादि के स्वरूप को ही सम्न्बध मानना श्रावश्यक है। इसमें पक्षवरमिश्र की भी सम्मति का संकेत प्राप्त होता है क्योंकि उन्हों ने वायु आदि में नीरूपत्व का उपपादन रूप के तद्धर्मतानामक सम्बन्ध के प्रभाव से किया है। तद्धर्मता की "स घर्मो यस्य स तद्धर्मा, तस्य भावः तद्धर्मता" इस व्युत्पत्ति के अनुसार तद्धर्मता तद्धर्म से भिन्न नहीं होती । रूप की तद्धर्मता का अर्थ होता है रूपात्मकधर्म । फलतः रूप में हो रूपसम्बन्धता पर्ययसित होती है। तो इस प्रकार उक्तव्यवस्था के लिये रूपादिस्वरूप को रूपादि का सम्बन्ध मानना ही है तो फिर रूपादि के सम्बन्ध रूप में समवायसिद्धि की प्राशा दुराशा मात्र है। उक्तव्यवस्था के सम्बन्ध में तत्वचिन्तामरिशकार गङ्गेशोपाध्याय ने यह कहा है कि वायु में यद्यपि रूप स्पर्श आदि का समवाय एक ही होता है फिर मी बायु नीरूप होता है क्योंकि उसमें रूप का प्रभाव स्वाभाविक है । श्रतः समवायपक्ष में भी रूपी और नीरूप की व्यवस्था होने में कोई बाधा नहीं है किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि वायु में जब रूपाभाव के प्रतियोगी रूप का सम्बन्ध है तो वहाँ समवायसम्बन्धावच्छिन्न रूपाभाव नहीं हो सकता क्यों कि प्रतियोगी का सम्बन्ध प्रभाव का विरोधी होता है ।
[ सम्बन्ध होने पर प्रधिकररगता का नियम नहीं है ]
यदि यह कहा जाय कि प्रतियागो सम्बन्ध होने पर भी प्रतियोगी को अधिकरणता का प्रभाव होता है। अतः प्रतियोगी के सम्बन्ध के साथ प्रभाव का विरोध नहीं होता क्योंकि तत्सम्बन्धी में तदधिकरणता का नियम नहीं है, जैसे कि. गगन का संयोग घटपटादि भूर्त द्रव्य में होने पर मौ संयोग सम्बन्ध से गगनादि की श्राधिकरणता उसमें नहीं होती। यदि कहें कि 'प्रतियोगी का वृसि नियामकसम्बन्ध जहाँ रहता है वहाँ प्रतियोगी की प्रधिकरणता श्रवश्य रहती है' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि कर में कपाल का संयोग वृत्तिनियामक सम्बन्ध है और वह कपाल में भी है किन्तु कपाल में कपाल के उस वृत्तिनियामक सम्बन्ध के रहने पर भी उस संयोग से कपाल में कपाल को अधिकरणता नहीं होतो । प्रत्युत उस सम्बन्ध से कपाल कपाल का प्रभाव ही होता है। छतः तद्वस्तु के वृत्तिनियामक सम्बन्ध में तवधिकरणता का नियम व्यभिचारग्रस्त है । यदि यह कहा जाय कि जिसमें जिस वस्तु का वृत्तिनियामक सम्बन्ध होता है उसमें उस वस्तु की अधिकरणता का