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स्या० ३० टीका और हिन्दी विवेचना ]
अत्राह-उभयोः हेतु-फलयोः, ग्रहणाभावे न तथाभावकल्पन-तज्जननस्वभावादिकल्पनम् । तयो; हेतु-फलयोः न्याय्यम् , उभयघटितत्त्वात् तम्य । न चैकेन ग्राहकेण द्वयो. भिनकालयोः ग्रहणमस्ति, वः युष्माकम् ।।९४|| एतदेव दर्शयति
एकमर्थ विजानाति न विज्ञानद्वयं यथा ।
विजानाति न विज्ञानमंकमर्थद्रयं तथा ॥१५॥ यथा विज्ञानद्वयं भिमकालं क्षणिकत्वादेकमर्थ न विजानाति, तथा विज्ञानमेकमर्थद्वयं भिन्नकालं क्षणिकत्वादेव न विजानाति । 'नाऽननुकृतान्वय-व्यतिरेक कारण, नाकारण विषयः' इति हिं सौगताना मतम् , न च ज्ञानद्वय एकस्यार्थस्येव ज्ञानेऽर्थद्वयम्यापि हेतुत्वम् , इति नकेनोभयग्रहणमिति भावः ।। ||
कार्य और कारण का ग्रहण न होने से यह कल्पना नहीं की जा सकती कि जिन कारणों के सह सन्निधान के अनंतर मिस कार्य का उदय होता है उन सभी कारणों में उस एक ही कार्य के जनन का स्वभाव है और कार्य में उन कारणों से हो उत्पन्न होने का स्वभाव होता है। ऐसी कल्पना न हो सकने का कारण यह कि उक्त कल्पना कार्यकारण दोनों से घटित है और कार्यकारण दोनों ही भिन्नकालिक है। बौद्ध मत में ग्रहोता भी क्षणिक है, इसलिये कार्य-कारण का ग्रहण किसी एक द्वारा नहीं हो सकता ।।९४|| ६५ वीं कारिका में इसी तथ्य को अन्य प्रकार से स्पष्ट किया गया है--
(एक और दो का ग्राह्य-ग्राहक भाव प्रसंभव) मिनकालिक दो विज्ञान जैसे एक प्रथं को नहीं ग्रहण करते क्योंकि क्षणिक होने से कोई अनुसंधान करने वाला एक अर्थ भिन्न कालिक दो विज्ञानों के समय नहीं रहता. इसी प्रकार एक विज्ञान भी भिन्न कालिक दो अर्थों को ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि क्षणिक होने से यह भी दो क्षण तक नहीं रह सकता।
बौद्धों का यह मत है कि जिसका अन्वयव्यतिरेक कार्य द्वारा अनुकृत नहीं होता बह कारण • नहीं होता, और जो अकारण होता है वह विषय नहीं होता । भिन्न कालिक ज्ञानद्वय के द्वारा एक अर्थ के अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान नहीं होता है क्योंकि पूर्व कालोपन में ज्ञान द्वितीयक्षण में होने वाले अर्थ का व्यतिरेक होने पर भी उत्पन्न होता है और उस अर्थ के काल में पूर्व ज्ञान होता नहीं। इसी प्रकार द्वितीय विज्ञान द्वारा पूर्वकालोत्पन्न अर्थ के अन्वय-व्यतिरेक का अनुकरण नहीं होता, क्योंकि वितीय विज्ञान द्वितीयक्षण में पूर्वोत्पन्न प्रर्थ के प्रभाव में भी उत्पन्न होता है और पूर्वोत्पन्न प्रर्थकाल में उत्पन्न नहीं होता। इसलिये एक प्रर्थ ज्ञानद्वय का कारण नहीं होता । उसो प्रकार एक ज्ञान प्रर्यद्वय का भी कारण नहीं होता क्योंकि प्रर्य द्वय से किसो एक ज्ञान के अन्वरध्यतिरेक का अनुकरण नहीं होता, जसे द्वितीय ज्ञान के दूसरे क्षण में ज्ञान के प्रभाव में मो दूसरे अर्थ को उत्पत्ति होती है, और ज्ञान-काल में उस प्रर्थ को उत्पत्ति नहीं होती । इस प्रकार स्पष्ट है कि बौद्ध मत में एक मान से दोनों का महरा नहीं होता है ॥१५॥