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स्या० ० टीका-हिन्दी विवेचना ]
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एतेन 'एवं दुःखध्वसरूपमोशस्यात्मानतिरेकेणासाध्यत्वादपुरुषार्थत्वं स्यात्' इत्यादि बाधकं निरस्तम्, आत्मनोऽपि पर्यायतया साध्यत्वात् । परस्य तु घटानयनदशायां भूतले घटाभावव्यवहारप्रामाण्यापत्तिः, भृतलस्वरूपस्य संबन्धस्य सत्वात् । 'तदभावभ्रमदर्शनेन
प्रक्षण्ण रहता है । अत एव उस कालमें भी 'भूतले घटो नास्ति' इस व्यवहार के प्रामाण्य की प्रापत्ति होगी।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि घटसंयोग और घटाभाव ये दोनों ही भूतल के परस्पर विरोधो पर्याय है । अत: घटानयन कालमें घटसंयोगरूप पर्याय का उदम होमेसे घटामावरूप पर्याय का प्रभाष हो जाता है, । अत एवं उस दशामें 'भूतले घटामाव: यह व्यवहार को मापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि व्यवहार के प्रामाण्यके लिये व्यवहार कालमें ग्यवर्त्तव्य की सत्ता अपेक्षित होती है।
[द्रव्य और पर्याय का भेदाभेद सम्मत है] पदि यह कहा जाय कि-'पर्याय तो उत्पत्ति-विनाशशाली होता है । किन्तु घटाभाव उत्पत्ति विनाशशाली नहीं होता अतः उसे भूतल का पर्याय कहना उचित नहीं है ।'-तो यह ठीक नहीं है। षयोंकि मतलसे घटको हठामे पर "हदानी मतले घटामावो जातः अब भूतलमें घटामाय उत्पन्न हुआ" इस प्रकार का अनुभव सर्वजनप्रसिद्ध है।
यदि इस पर यह शडा हो कि "प्रभाष को उत्पन्न मानने पर तो मूतलसे उसका भेद हो सिद्ध होगा। क्योंकि भूतल से घटको हटाने पर "इदानीं भूतलं जातं" यह अनुभव नहीं होता किन्तु 'भूतले घटामावो मात:' यही अनुभव होता है।"--तो यह ठीक नहीं है क्योंकि भूतल एक द्रव्य है और घटसंयोग तथा घटाभाव उसके पर्याय है। पर्याम और द्रव्य में भेदाभव होता है। प्रतः पर्याय को प्रष्टि से प्रभाव में भूतल का भेद होने पर भी व्रव्य की दृष्टि से घटाभाष में भूतल का भेव उत्पन्न हो सकता है। मूतल में घटाभाव उत्पन्न होने पर घट संयोगात्मक पर्याय की निवृत्ति होने से उसके द्वारा यद्यपि भूतल द्रव्य का भी विगम हो जाता है। फिर भी घटवत्कालीन मूतल और पदाभाव कालीन भूतल में ऐक्य की प्रतिजा में बाधा नहीं हो सकती। क्योंकि पर्यायद्वारफ द्रव्य का विगम ऐक्य की प्रत्यभिज्ञा का विरोधी नहीं होता है। इसलिये 'श्यामः घट: उत्पन्न:' 'रक्तो घटः नष्ट:' इस प्रकार श्यामात्मना घट की उत्पत्ति और रक्तात्मना घट का नाश होने पर मौ स एवायं घट:' इस प्रकार को प्रत्यभिज्ञा का होना सर्व सम्मत है ।
[अभाव-प्रधिकरण-प्रभेद पक्ष में मोक्ष पुरुषार्थ की उपपत्ति] इसीलिये-प्रभाव और अधिकरण के अमेव पक्ष में-"दुखवंसरूप मोक्ष में प्रारमा का भेद न होने से प्रात्मा असाध्य होने के कारण मोक्ष मो असाध्य हो जायेगा इसलिये मोक्ष के पुरुषार्थत्व को हानि होगी अर्थात् पुरुष के लिये वह अभिलाष विषय नहीं रहेगा।" यह मापत्ति भी प्रभाव और अधिकरण की ममेद सिद्धि में बाधक नहीं हो सकती क्योंकि दुखध्वंसरूप मोक्ष मो प्रारमा का पर्याय है । प्रतः (दुखामावरुप)पर्यायात्मना पास्मा में भी साध्यस्व इष्ट है । प्रापत्ति सो सचमुच, प्रभाव और अधिकरण के भेव पक्ष में ही प्रसक्त होती है । जैसे, भूतल में घट के प्रानयनकाल में "भूतले घटो नास्ति' यह व्यवहार के प्रामाण्य को प्रापत्ति संमवित है। क्योंकि उस काल में नित्य होने के नाते घटाभाव भी है और मूसलस्वरूप उसका सम्बन्ध भी है। अत: सम्बन्ध और सम्बन्धी शेनों के विद्यमान होने से उक्त व्यवहार के प्रामाण्य का निराकरण सम्भव नहीं है ।