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[ शा. या समुच्चय स्व० ४ श्लो० ११८
सौत्रान्तिकनिराकरणयाता उपसंहरति
सर्वमेतेन विक्षिप्तं क्षणिकत्वप्रसाधनम् ।
तथाप्यूर्व विशेषेण किश्चित्तत्रापि वक्ष्यते ॥१३७॥ एतेन-उक्तदोषजालेन सर्व क्षणिकत्वप्रसाधनं नाशहेत्वयोगादि पूर्व नाममात्रेणोक्तम् विक्षिप्त निराकृतम् , बाधकतर्कप्राबल्यात । तथाप्यूव योगाचारमतनिराकरणानन्तरं तत्रापि नाशहेत्वयोगादीनामुमयसाधारणत्वेनाभयनिराकरणानन्तरमवसरमाप्ते तनिराकरणग्रन्थेऽपि किंचित उपपादनस्थानानुरोधेन वश्यते, विशेषेण अतिस्वं तदाशयोद्भावनेन ॥१३७॥
ताथागतानां समयं समुद्र तर्कोऽयमौर्वानलवद् पदाह । पश्चन्तु नश्यन्ति जवेन भीता दीना न मीना इव किं तदेते? ॥१॥ रक्सः प्रतक्तः क्षणिकत्व सिहौ यदुक्तसूत्रं हतवान् स्वकीयम् । सूत्रान्तकोऽप्येष लिपिभ्रमेण सौत्रान्तिको लोक इति प्रसिहः ॥२॥
(सौत्रान्तिक मत का अंतिम उपसंहार) सौत्रान्तिक को प्रोर से, भावमात्र के क्षारणकत्व को सिद्ध करने के लिये 'नाश में हेतु का प्रयोग याती नाश नितुक होता है। इत्यादि जो नाममात्र की महत्त्वहीन बातें कही गयी थी उन सब का प्रबल वाधक तर्कों द्वारा पूर्व प्रदशित दोषों से निराकरण किया गया। प्रागे मी योगाचार मत के निराकरण करने के बाद नाश के निर्हेतुकत्वादि की जो बातें सौत्रान्तिक और योगाचार उभय साधारण है उस सम्बन्ध में दोनों मतों का निराकरण करने के बाद उस प्रकरण स्तिबक ६] में भी वायसर उपपादन को प्रायश्यकतानुसार प्रत्येक के प्राशय का उद्भावन कर कुछ और कहा जायगा।
सौत्रान्तिक ने भावमात्र में क्षणिकत्व का साधन करने के लिये नाश में हेतु का प्रयोग 'नाग नितुक होता है' इत्यादि युक्तियां संक्षेप से कही है, उन सब का निराकरण यद्यपि बाधक तर्कों को सहायता से पूर्वोक्त दोषों द्वारा किया गया। तो भो उनके सम्बन्ध में योगाचार मत का निरूपण करने के बाद एवं नाश निहतुक होता है इत्यादि उभय साधारण मतों का निराकरण करने के पश्चात पुन: उन हेतुनों के विशेष रूप से निराकरण का अवसर प्राप्त होने पर उनके उपपावन के प्रसंग से कुछ विशेष बात कही जायगो। और उन प्रत्येक के सम्बन्ध में बौद्ध के अभिप्राय का उद्भाधन किया जायगा ॥१३७॥ .
व्याख्याकार ने अपने तीन पद्यों द्वारा इस स्तबक के.. पूरे विचार का परिणाम अत्यन्त सुदर ढंग से प्रस्तुत किया है । उन का कहना है-बौद्धों का सिद्धान्त एक विस्तृत समृन जैसा है और जैन मत की प्रौर से प्रस्तुत किये गये तर्क समूह रूप वडवानल जब उसे दग्ध करने लगता है तो समुदानित मोन के समान उस सिद्धान्त के प्राश्रित बेचारे बौद्ध भी त्रस्त होकर वेग से इधर उधर पलायन करने लगते है , उन के उस पलायन का दृश्य कुछ दर्शनीय होता है ।।१।।