________________
स्या का टीका भौर हिन्दी-विवेचना ]
शबलात्मकमेव हि वस्तु कदाचिदनुगतम् , कदाचिच्च च्यावृत्तमनुभूयमानं शोभते, भेदाभेदशक्तिचित्र्यात् , आर्थन्यायेन यथाशयोपशमं ग्रहणादिति परिभावनीयम् ।
संरम्भमस्मासु वित्तत्य सत्पथातो बत्तोलसर्मियता सौगा
अनेन शोच्यां तु वशां सहायोकृतोऽपि योगो यदसौ जगाम ॥१॥ १३॥ यथाथ बोध को अनुपपत्ति होगी. क्योंकि घटरूपाकाशगत वित्वरूप प्राधेयता में घटपटोभय निरूपितत्व न होने से घटपटोभय विशिष्ठ ताइशाधेयता के प्रभाव का बोध नहीं हो सकता और घटपटोमय से अनिरूपित तादशाधेयता का भी घटरूपाकाागत द्विस्वायर छेदेन बोध नहीं हो सकता। यदि इस वाक्य का तात्पर्य नार्थ प्रभाव का द्विधा यानी दो ब.र मान मान कर घट रूप और प्राकाश इन दोनों में घटपटोभय से अनिरूपित प्रादेयता के प्रभाव का बोध माना जाय तो यह भी संभव नहीं है क्योंकि जैसे घटपटोभय से निरूपित प्राधेयता घटरूप और प्राकाश इन दोनों में नहीं है उसीत्रकार ताश प्राधेषता का प्रभाष मी उमय में नहीं है. क्योंकि घट रूप में तादृश प्राषयता विद्यमान है । अत: यह सब कल्पना अनुभव विरुद्ध होने से प्रकिचित्कर है अनावरणीय है।
किन्तु यही मानना ही उचित है कि प्रत्येक वस्तु शबलात्मक सामान्यविशेषोभयात्मक एव वस्तु कमी सामान्यरूप से प्रतुगत आकार में और कमी विशेषरूप से व्यावृत्त प्राकार में भनुभूत होती है। पयोंकि वस्तु में सामान्य विशेष का भेदाभेद होने से विशेषग्राहिका शक्ति और सामान्यग्राहिका शक्ति में वंचिश्य होने से सामान्य प्राकार से ग्रहणकाल में विशेषाकार में और विशेषाकार से ग्रहणकाल में सामान्याकार से ग्रहण का प्रतिप्रसंग नहीं हो सकता। किन्तु वस्तु के जिस अंश का जब क्षयोपशम होता है तब उस अंश में ही वस्तु का ग्रहण होता है । व्याख्याकार ने क्षयोपशम के कम से वस्तु के सामान्यविशेषादि विभिन्न अशों के प्रहण का समर्थन प्रार्थन्याय से किया है। यहां प्राथन्याय का अर्थ है भनेकार्थक पद से भिन्न भिन्न प्रर्थों का क्रम से बोध होने का न्याय । प्राराय यह है कि जैसे कोई एक पद अनेक प्रयों का बोधक होता है फिर भी वह एक अर्थों का बोधक नहीं होता किन्तु जब जिस मथं में उस का विवक्षित तात्पर्य ज्ञात होता है तब उस प्रर्थ का बोध होता है । उसो प्रकार वस्तु को अनेकान्तरूपता के मत में वस्तु के ग्राहक से भी उसके समी अंशों का एकसाथ ज्ञान न होकर क्षयोपशम के कम से, विभिन्न अंशों का क्रम से ही ज्ञान होताहै।
व्याख्याकार ने बौद्ध के साथ अब तक के सम्पूर्ण विचार के परिणाम के सम्बन्ध में एक पद्य से और प्रौर नैयायिक दोनों के प्रति व्यङात्मक खेद प्रकट किया है उस पयका प्रर्पस प्रकार है
सत्य है कि बौद्ध ने जैन विद्वानों के साथ उच्चकोटि का वखारिक संग्राम किया. बडे विस्तार से किया और पराजित हुमा । किन्तु खेव इस बात का है कि उसने अपनी सहायता के लिये जिस* नंयायिक का हस्तावसम्म किया वह बेचारा बौद्ध से भी अधिक शोचनीय अवस्था में गिर पड़ा। १३६।।
१३७वों कारिका में सौत्रान्तिक मत के निराकरण की वर्धा का उपसंहार किया गया है
* यहाँ नैयायिक का योग शब्द से ग्रहण किया गया है क्योंकि अत्यन्त प्राचीन समय में योग शब्द न्यायदर्शन के लिये प्रयुक्त होता था इसलिये 'योगं न्यायशास्त्रमध.ते इस व्युत्पत्ति से योग शब्द का प्रयोग किया गया है। न्यायशास्त्र अर्थ में योग पद के प्रयोग का सकेत न्यायसूर के वात्स्यापन भाष्य प्रथम पाहिक में प्राप्त होता है।