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ग्या० क० टीका और हिन्दी विवैधना ]
[ १११
मूलोपक्रमोपसंहारमाह
एतच्च नोक्तवश्युक्त्या सर्वथा युज्यते यतः । 'नाभावो भावतां याति' व्यवस्थितमिदं ततः ॥६५॥
एतच्च-असत्सद्भवनमनन्तरापादितम् , उक्तवयु क्त्या अभिहितजातीयन्यायेन, सर्वथा भावावधिसून्य मते यः, तो 'नामाको भावना याति' इति यदुक्तं इदं व्यवस्थितम्-उपपन्नम् , स्वाभिन्नहेतोरेव स्वोपादानत्वात सत्कार्यवादसाम्राज्यात् ।।६।।
अत्र नैयापिका ननु नैतत् साम्राज्यम् , स्वसमवेतकार्यकारित्वेनैव [स्वोपादानात , सत्कार्यकारित्वेनैव ! ] स्वोपादानत्वसंमनात , सत्तासमवायेनेव चार्थाना सत्वात् , अनुत्पत्तिदशाया प्रागभावरूपासत्वेऽपि सत्ताभावाऽयोगेनाऽविरोधात , घटप्रागभावदशायां घटसच्याभ्युपगम एव विरोधात ; तस्य घटत्वावच्छिन्नत्वाभावेन घटत्त्वावच्छिन्नेन सह विरोधस्य वक्तुमशक्यत्वाद् इति चेत् ? न, विरोधस्य विशिष्यव कल्पनात , 'इदानीं सन घटः प्राग न सन्' इति धियः 'इदानीं श्यामः प्राग् न श्यामः' इतिवदुभयैकरूपवस्त्यवगाहित्वात् समवाये मानाभावाच्च ।
[प्रभाव का भाव संभव नहीं है - उपसंहार ] ६५ धौं कारिकामें, 'अभाव भाव नहीं होता' (११ वीं कारिका निविष्ट) इस मूल कपन का उपसंहार किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है -
अभी तत्काल बौद्धमत की पालोचना के प्रसङ्ग में असत्-कार्यवाद स्वीकार करने पर जो असत् का सद्भबन रूप अनिष्ट प्रापादित हुआ है वह जसे युक्ति से प्रापादित हुमा है उसी प्रकार की युक्ति से विचार करने पर पूर्वमावात्मक अवधि के सर्वथा प्रभाव में प्रसद का समवन युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता। प्राशय यह हा कि यदि असत् कार्य को सत्तात्मक उत्पत्ति मानो जायेगी तो प्रसत शशसींगादि की सत्ता का भी प्रसङ्ग होगा। क्योंकि, उत्पत्ति के पूर्व कार्य को यदि कोई भावात्मक अवधि नहीं होगी तो उसके प्रसत्व और शासोंगादि के प्रसत्त्व में कोई अन्तर नहीं होगा। प्रतः प्रसत् कार्य का सद् भवन उपपन्न नहीं हो सकता । प्रत एवं पूर्व में जो यह बात कही गई कि 'प्रमाव भाव नहीं हो सकता' वह सर्वथा संगत है । निष्कर्ष यह है कि नियत कारण से नियत कार्य की ही व्यवस्थित उत्पत्ति का दर्शन होनेसे यह मानना आवश्यक होता है कि कार्य से अभिन्न कारण ही कार्य का उपादाम कारण होता है। एवं च, जब उपादान में कार्य का प्रमेद प्राप्त हुन्मा तो कारणात्मना कार्य का प्राक् सत्त्य अनिवार्य होने से सत्कार्यवाद का साम्राज्य प्रखण्डित हो जाता है ।।६५॥
( समयायिकारखोपावानतावादी नेयायिक का पूर्वपक्ष ) कार्यसे अभिन्न कारण ही कार्य का उपादान कारण होता है इसलिये सत्कार्यवाद का साम्राज्य अखण्डित है' इस निष्कर्ष के विरोध नैयायिकों का कहना यह है कि सत्कार्यवाद का कल्पित साम्राज्य क्षणमर भी नहीं दीक सकता । क्योंकि उसका जो आधार बताया गया है 'कार्य से अभिन्न कारण हो