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[ शा० शा० समुच्चय स्त० ४-रको० १०४
तदमावे भावः, अस्गापि-नालिकेरद्वीपत्रासिधूमज्ञानस्य विद्यते, तत्काले यथोक्ताग्निज्ञानामावादानन्तर्याद् विशेषः स्यादित्यत आह-अनन्तरचिरातीतं तत्पुनरग्निज्ञानम् , वस्तुतः= परमार्थतः तदानीमसचात् समम् अनुपयोगाऽविशेषात् , हेतुसत्त्वस्यैव कार्ये उपयोगात् । वस्तुनो नाग्निज्ञानजधूमज्ञानत्वेनाग्निगमकन्वम् , अनग्निज्ञानादपि धूमं झात्या मानसाध्यक्षेण ऊहारख्यप्रमाणेन वा व्याप्तिग्रहेऽग्निज्ञानोदयात् , अग्निज्ञानकुद्रपत्वं च न धृभज्ञानहेतुतार्या पक्षपाति, पिशाचस्यापि तथाहेतुत्वसंभवादिति न किञ्चिदेतत् ।।१०४॥ में कोई बेसक्षल्य न हो सकेगा, क्योंकि अग्निज्ञान के अभाव में उत्पन्न होना दोनों धूमज्ञानों में समान है।
यदि यह कहा जाय कि-'अविनाभावग्रहस्थलीय घमशान से नारिकेल द्वीपचासी पुरुष का घमज्ञान पिसक्षम इसलिए है, कि उसमें अग्निज्ञानाभाव का प्रानन्तर्य होने से वह अग्निज्ञानहेतुक नहीं है और अधिनाभावग्रह स्थलीय धमज्ञान में अग्नि का प्रानन्तर्य होने से वह अग्निज्ञान हेतुक है'-तो यह मो ठोक नहीं है क्योंकि अविनामावग्रहस्थलीय धमज्ञान के पूर्व भी अग्निज्ञानरभाव ही रहता है। प्रतः अग्निज्ञान की अनुपयुक्तता दोनों धमज्ञान में समान है, क्योंकि हेतु को सत्ता ही कार्य में उपयोगी होती है अतः जब अग्निज्ञान प्रतीत हो चुका है तब वह भो धमज्ञान के प्रति अनुपयुक्त ही है । इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि अविनामायग्रहस्थलीय धूमज्ञान अग्निज्ञान हेतुक है और नारिकेल द्वीपवासो का धूमज्ञान अग्निज्ञानहेतुक नहीं है। ____ सत्य तो यह कि अग्नि के अनुमान के प्रति अग्निज्ञानजन्य धमज्ञान कारण ही नहीं होता, क्योंकि अग्निशान न रहने पर मो धमज्ञान होकर मानस प्रत्यक्ष से प्रयया ऊह प्रमाण से धूम में वह्निव्याप्ति का ज्ञान होकर अग्नि के अनुमान का उदय होता है । इससे स्पष्ट है कि धम में अग्नि की व्याप्ति का ज्ञान जो घमज्ञान अन्य यति के अनमान का बीज है वह घमहप ध ग्राहक से नहीं होता किन्तु धमज्ञान हो जाने के बाद दूसरे ज्ञान अर्थात् मानसप्रत्यक्ष अथवा ऊह नामक प्रमाण से होता है । अत एव नारिकेलद्वीपदासो को मानसप्रत्यक्ष या ऊह प्रमाण से धूम में वहिन का व्याप्तिग्रह न हो सकने के कारण धमज्ञान से वह्नि का अनुमान नहीं होता है।
[अरितज्ञानकुर्वद्र पत्य पिशाच में भी हो सकता है] बौद्ध पुन: नारिकेल द्विपवासो में धमजान और उस पुरुष के अग्निज्ञानको जिसे धम वह्नि का सहचार-प्रधिनाभाव का ज्ञान पूर्व में हो चुका है उसका धूमज्ञान में इस प्रकार वलक्षण्य बतावे कि पूर्व पुरुष के धूमज्ञान में अग्निज्ञानकुर्वव्यत्व नहीं होता है और द्वितीयपुरुष के धमज्ञान में अग्निज्ञानकुर्वपत्व होता है इसलिये पूर्व पुरुष के धमज्ञान से अग्नि का अनुमान नहीं होता और द्वितीय पुरुष के बमज्ञान से पग्नि का अनुमान होता है क्योंकि घूमज्ञान कुर्वदूपत्वेन अग्नि का अनुमान का जनक होता है-तो इस प्रकार भो घूमज्ञान का विशेषोकरण युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योंकि धमज्ञान के प्रति अग्निज्ञान कुर्वदूपत्व के पक्षपात का कोई कारण नहीं है कि जिससे यह धमज्ञान में हो रह कर उसी में अग्नि अनुमापकता का उपपादन करें। क्योंकि तब तो यह कहने में भी कोई बाधा नहीं दीखतो कि अग्नि का अनुमान घूमशान से नहीं अपितु अग्निज्ञानकुर्वत्रूपत्व विशिष्ट पिशाच से होता है ।
धमाके