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[ शा.वा.समुकचय स्त० ४
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विलक्षणविषयताशालित्य का उपपावन संभव नहीं है। अतः तद्विषयताशाली गुणादिविशिष्टविषयक प्रत्यक्ष को समवायविरोधो के प्रति प्रयोक्तव्य अनुमान में पक्षरूप से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता कि यह प्रावश्यक नहीं होता है।
तात्त्विक बात तो यह है कि झानों में जो बैलक्षण्य होता है यह विशेषण विशेष्य या सम्बन्धपादि के भान प्रभान पर निर्भर नहीं होता प्रपितु वस्तु के तत्तद्रूप से ज्ञेय होने के स्वभावविशेष से होता है। प्राशय यह है कि प्रत्येक वस्तु में विभिन्न रूपों से झेप होने का सहज स्वभाव होता है । उस स्वभाव के अनुसार ही वस्तु ज्ञेय होती है । तत्तद् द्रव्यात्मक वस्तु तत्तद्गुणविशिष्टतया ज्ञेय स्वभाव से सम्पन्न होने के कारण तत्तद्गुणविशिष्ट बुद्धि का विषय बनती है। अतः उस बुद्धि में जो प्रन्यबुद्धियों की अपेक्षा बलक्षण्य है वह उसके स्वभावाधीन ही है उसके लिये उसके विषयरूप में अथवा उसके कारण रूप में समवाय का अनुमान आवश्यक नहीं है । यही उचित भी है कि ज्ञानों में अनुसूयमान वलक्षण्य को वस्तुस्वभावाधीन हो माना जाय, क्योंकि यदि उसे विषयाधीन माना जायगा तो 'दण्ड और पुरुष समूहालम्बन बुद्धि और 'दण्डवाला पुरुष' इस विशिष्ट बुद्धि में बलक्षण्य न हो सकेगा क्योंकि दोनों समान है।
[भासमान संबंध प्रतियोगित्व रूप प्रकारता में अतिप्रसंग] यदि यह कहा जाय कि-"वण्ड और पुरुष' इस बुद्धि में वण्ड में प्रकारता नहीं है और वण्ड वाला पुरुष' इस बुद्धि में दण्ड में प्रकारता है । क्योंकि प्रकारता केवल वैशिष्टय (सम्बन्ध) प्रतियोगित्वरूप नहीं है किन्तु तत्तज्ज्ञान की प्रकारता तत्तज्ज्ञान में भासमान सम्बन्ध का प्रतियोगित्व रूप है। 'दण्ड और पुरुष' इस ज्ञान में दण्ड और पुरुष का सम्बन्ध भासमान नहीं होता । प्रत एव तज्ज्ञान में भासमान सम्बन्ध को प्रतियोगिता दण्ड में नहीं है किन्तु दण्डवाला पुरुष' इस ज्ञान में दण्ड-पुरुष का संयोग सम्बन्ध भासमान है और उसको प्रतियोगिता दण्ड में है"-किन्तु
कायन ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर मो 'बण्ड-पुरुष-संयोगा:' और 'दण्डो पुरुषः' इन बुद्धियों में वलक्षण्य नहीं हो सकेगा, क्योंकि जैसे द्वितीय अद्धि में दण्ड पुरुष का संयोग भासमान होता है और उसको प्रतियोगिता दण्ड में होती है और इसलिये यह बुधि दण्ड प्रकारक होतो है उसी प्रकार 'वण्डपुरुषसंयोगाः' इस बुधि में भी दण्डपुरुषसंयोग भासमान है और उसकी प्रतियोगिता वण्ड में है अतः वह बुद्धि भी दण्डप्रकारक हो जानेकी आपत्ति होगी फलत: उक्त दोनों बुद्धियों में वलक्षण्य नहीं हो सकेगा।
[स्वरूपतः भासमान संबंध प्रतियोगित्व में भी अनिष्ट]
इसके प्रतिकार में यदि यह कहा जाय कि-'तसज्ज्ञान को प्रकारता तत्तज्ज्ञान में स्वरूपतः मासमान जो सम्बन्ध तत्प्रतियोगित्वरूप है तो उक्त प्रापत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि दण्डी पुरवः' इस बुद्धि में संयोग का स्वरूपतः भान होता है। प्रत एव उस ज्ञान में स्वरूपतः मासमान सम्बन्ध की प्रतियोगिता बण्ड में होने से वह बुद्धि दण्डप्रकारक होता है, किन्तु 'दण्डपुरुषसंयोगा।' इस बुद्धि में संयोग का स्वरूपतः नहीं किन्तु विशेष वधया अर्थात् संयोगरवरूप से ही भान होता है,