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अहं फ्र हिन्दाविवेचनसंयुत स्याद्वादकल्पलतान्याख्याविभूषित
शास्त्रवार्त्तासमुच्चय #
चतुर्थस्तवकः
[ व्याख्याकार का मङ्गलाचरण ] यस्याभिधानाज्जगदीश्वरस्य समीहितं सिद्धयति कार्यआतम् |
सुरासुराधीशऋतांह्रिसेवः पुष्णातु पुण्यानि स पार्श्वदेवः ॥ १ ॥
जिस जगत्स्वामी के नामोच्चार से मनुष्य के समस्त अमीष्ट कार्य सिद्ध होते हैं, एवं देवों तथा असुरों जिसके चरणों की सेवा करते हैं वे पार्श्वदेव भगवान् हमारे पुण्य का हमारी 'पवित्र प्रवृत्तियों का हमारे विशुद्ध मनोमयों का हमारे शुभ अनुबन्धों का संवर्धन करें। इस मंगलश्लोक में भगवान् के नामोच्चार आदि से मनुष्य के सर्व ग्रभिलषित कार्यों को सिद्धि होने की बात कही गयी है और उन्हें जगत् का ईश्वर बताया गया है। इन दोनों कथन से श्रापाततः इश्वर में जगत् के मनचाहा विनियोग एवं सम्पूर्ण कार्यवृन्द का कर्तृत्व भासित होता है, किन्तु मङ्गलकर्ता का इस अर्थ में तात्पर्य नहीं हो सकता, क्योंकि तृतीयस्तबक में सविस्तर ईश्वर के जगत्कर्तृत्व का खंडन किया है और यहाँ भी उस का संकेत 'समस्त इष्टसिद्धि में भगवद् नामकीर्तन हेतुकता' के कथन से कर दिया है।
श्राशय यह है कि भगवत्कीर्तन समस्त वांछित का साधन है, स्वयं भगवान् इसमें सरक्षात् कृतिमान रूपसे कत्ता नहीं, क्योंकि वीतराग होने से उन में इस प्रकार का कर्तृत्व हो ही नहीं सकता, किन्तु जगत् का ईश्वर कहने से यह सूचित किया है कि और किसी के नहीं किन्तु वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् के नाम कीर्तन से ही सर्वमनोवांछित की सिद्धि होती है, इसलिये सिद्धि में मुख्य कारण भूत कीर्तन के आलम्बन भगवान् ही है।
जैन दर्शन में कार्यमात्र के प्रति नियति-स्वमाव-काल-कर्म-पुरुषार्थं इन पांचों का समवाय कारणभूत माना गया है, वहां भी प्ररिहंत भगवान का इन पाँच कारणों पर प्रभुत्व माना गया है, इस से सूचित होता है कि पंचकारणजन्य जगत्कार्य पर भी भगवान् का प्रभुत्व है । यही जगवीश्वरत्व है । वीतराग सर्वज्ञ २३ वे तीर्थंकर पार्श्ववेव में इसी प्रकार का प्रभुत्व विवक्षित है ।