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[ शा.वा समुच्चय स्त० ४-लो० १२५
अत्र च यथा विरोध आपद्यते तथा..
मे-मयेत्यात्मनिर्देशस्तद्गतोक्ता वधकिया ।
स्वयमाप्तेन यत्नद वः कोऽयं क्षणिकताग्रहः ? ॥१२॥ अत्र 'मेन्मया' इत्यात्मनिर्देशः अस्मच्छब्दस्य स्वतन्त्रोच्चारयितरि शक्तत्वात् । षष्ठयन्तास्मच्छन्दस्य 'में' इति रूपभ्रमवारणाय 'मया' इति विवरणम् । तद्गता=आत्मगता
[ प्रवृत्ति के एक देश में वृत्ति अघटक पदार्थ का अन्वय कैसे ? ] व्याख्याकार ने कारिका के तेन विपाकेन' इस भाग की व्याख्या करते हुये यह बताया है कि से 'रोगेण वेरनावान् = यह पुरुष रोग से दुखी है'- इस प्रतीति में वेदनावान् इस तद्धितान्त वृत्ति सद के घटक पेवना शब्दार्थ का अन्वय पुरुष में होता है और उस पुरुषान्वित बेदना में रागेण इस तृतोपान्त पद के रोगबन्यत्व रूप प्रथं का अन्वय होता है उसी प्रकार कर्मविपाक इस समस्त वृत्ति पद के घटक कर्मपदार्थ का विपाकपदार्थ में अन्वय होता है और उस बिपाकावित कर्म में तेन शब्द के तज्जन्यत्वप्रतोतकालकृतपुरुषवधजन्यत्व का मो अन्दय हो सकता है। अत: 'वृत्ति शब्द के एकदेशार्थ वृत्ति के प्रमटक शश्वार्थ का मन्वय व्युत्पत्ति विरुद्ध होने से 'तेन कमविषाकेन' इस शब्द का पुरुष वधजन्य कर्म का विपाक रूप अर्थ नहीं हो सकता, यह शंका निर्मूल हो जाती है क्योंकि उक्त प्रामाणिक प्रयोगों के अनुरोध से उक्त ध्युत्पत्ति को इस परिवर्तित रूप में स्वीकार करना प्रारश्यक होता है कि वति के प्रघटक जिस जिस पद के अर्थ का बत्ति शब्द के एकदेशार्थ के साथ अन्य अभियुक्त सम्मत है उन पदों से मिन्न वृत्ति प्रघटक पदार्थ का वृत्ति घटकशब्दार्थ के साथ प्रत्यय नहीं होता । वृत्तिघटक जिन पदों के अर्थ का वृत्ति शब्द के एकवेशार्थ के साथ अन्वय अभियुनत सम्मत हैं उन पदों में कारक विभक्ति भी आती है । अतः जैसे 'रोगेण वेदनावान्' इस स्थल में तृतीया रूप कारक विमत्यर्थ जन्यत्व का वृत्तिशब्दार्थ एक देश वेदना में प्रत्यय होता है उसी प्रकार तेन शब्द में तत् शब्द के उतर श्रयमाण तृतीया विभक्ति भी कारक विभक्ति है अत. उसके अर्थ का भो कर्मविपाक इस समासात्मक वृत्ति शब्द के एकदेशार्थ कर्मशब्दार्थ के साथ अन्वय निष्कंटक है । व्युत्पत्ति का यह परिवर्तित रूप जगदीश सालङ्कार के शब्दशक्तिप्रकाशिका अन्य में 'प्रतियोगिपदादन्यद् यदन्यद् कारकादपि वृत्तिशब्दै कदेशार्थे न तस्यान्वय इष्यते' इस प्रकार प्रति है । १२४।
१२५ वी कारिका में मायमात्र को क्षणिक मानने पर उक्त प्रार्ष वचन का विरोध कैसे होता है इस बात का प्रतिपादन किया गया है--
[ 'मे' शब्द से कर्ता-भोक्ता का अभेद निर्देश ] उक्त ऋषि वचन में बुद्ध द्वारा में शब्द से अपनी आत्मा का निर्देश किया गया है क्योंकि मे' शब्द प्रस्मद् शब्द का रूप है और प्रस्मन् शब्द की स्वतन्त्र उच्चारणकर्ता में शक्ति होती है। उक्त वचन में में' शब्द के स्वतन्त्र उच्चारण कर्ता बुद्ध है अतः 'मे' शब्द से निश्चित रूप से बुद्ध का
'कृत्तद्धितसमासैकशेषसनाधन्तधातवः पञ्च वृत्तयः' इस शब्द शास्त्रीय वचनानुसार 'कृन्प्रत्ययान्त तद्धित प्रत्ययान्त. समस्तवाक्य एक शेषवाक्य और सनादिप्रत्ययान्त धातु, इन पांच प्रकार के शब्द वत्ति शब्द से संज्ञात होते है।