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स्या क० दीका और हिन्दी विवेचना ]
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रजतविकल्पसाहित्य कारणतापच्छेदमिति न दोष इति चेत् ? न, श्यविषयस्य दर्शनस्य प्राप्यविषयप्रवृत्यहेतुत्वात् , विकल्पाऽविकल्पयोमिन्नकालत्वेनाऽसाहिन्याच्च ।
अथ दर्शनप्रवृत्योरेकसंततिगामित्वेन सामान्यत एव हेतु-हेतुमद्भाषः, समानविपयतया तु रजतत्वविकल्पस्य र रजतार्थि प्रवृत्तिहतुशा, अलीकविषयवन तम्य स्वभावत एवाऽनिः हितप्राप्यविषयन्वात् । इदमेव हि दृश्यप्राध्ययोरेकीकरणं यद् दृश्यविषयतयाध्ययम्यमानस्य प्राप्पविषयन्त्रम् । विशेषणमात्रविषयत्वरचनं च विकल्पम्य संनिहितविशेष्यानवगाहिन्वाभिप्रायात् । शुक्तो रजतधीस्थले बाधावतारे च रजनविशेष्यकरजतत्वप्रकारकत्यामावरूपा:प्रामाण्यग्रहादिति न दोष इति घेत ?
( रजतदर्शन से रजतार्थी की प्रवृत्ति का निराकरण ) बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'सत्यरजत के विकल्पस्थल में, विकल्प स्वयं रजतार्थों की प्रवृत्ति का हेतु नहीं होता किन्तु रजतग्रह का मेवज्ञान न होने से रजत का दर्शन हो रजताओं को प्रवृत्ति का हेतु होता है क्योंकि वह स्वतः निश्रित प्रामाण्य वाला होता है। प्रसस्यरजतमानस्थल में शुक्ति का दर्शन होने पर उस में रजतग्रह का भेदप्रह हो जाता है । इसलिये शुक्तिदर्शन के बाद प्रवत्ति नहीं होती । किन्तु शुक्ति दर्शन के पूर्व प्रसत्यरजत ज्ञान में भी रजतग्रह का भेदनान नहीं रहता प्रत एव उस से प्रवृत्ति होती है। दो ों में अन्तर यही है कि सत्यरजत विकल्प रजतार्थो की प्रवृत्ति में रजतदर्शन का सहकारी होता है और असत् रजत ज्ञान किसी ज्ञानान्तर का सहकारी न होकर स्वयं प्रवर्तक होता है किन्तु राघज्ञान हो जाने पर यह प्रप्रवर्तक हो जाता है। केवल निर्विकल्प से प्रवृत्ति नहीं होती है इसलिये रजविकल्पसहकृतदर्शन को प्रवृत्ति का कारण माना जाता है और रमतविकल्पसाहित्य प्रकृति का कारणतावच्छेदक होता है प्रतः सस्यरजत ज्ञान और प्रसत्यरजत जान में तुल्यता न होने से प्रसंशय का पावन रूप दोष नहीं हो सकता-" तो यह ठीक नहीं है क्यों कि दर्शन दृश्य विषयक होता है और प्रवृत्ति प्राप्यविषयक होती हैं और बौद्ध मत में दश्य और प्राप्य में भेव होता है इसलिये दर्शन प्रवत्ति का कारण नहीं हो सकता। एक विकल्प और दर्शन दोनों भिन्न कालिक है अत एव दोनों का साहित्य सम्भव न होने से विकल्प सहित दर्शन को प्रवृत्ति का कारण भी नहीं माना जा सकता।
(दर्शन और प्रवृत्ति में हेतु-हेतुमद्भाव को उपपत्ति का नया तर्क ] यदि यह कहा जाय कि-दर्शन और प्रवृत्ति एक सन्तान का घटक है अत एव उन दोनों में सामा. म्यरूप से विष शेष का प्रवेश किये बिना ही हेतु-हेतुमद्भाव है प्रर्यात् घटितत्व सम्बन्ध से प्रवृत्ति के प्रति घटितत्व सम्बन्ध से वर्शन कारण है । इस कार्य-कारणभाव के बल से दर्शन और प्रवृत्ति दोनों का एकसन्तानगामित्व सिद्ध होता है। प्रवत्तंकज्ञान और प्रवृत्ति में समानविषयत्व की सिद्धि विकल्प-को प्रकृति का कारण मानकर सम्पन्न होती है । अर्थात् विषयता सम्बन्ध से प्रवृत्ति के प्रति विषयता सम्बन्ध से विकल्प कारण होता है इस कार्य कारण माय से प्रवर्तक विकल्प और प्रवृत्ति में समानविषयकत्व की सिद्धि होती है । इस पर यह शंका कि-'प्रवर्तक विकल्प के समान प्राप्य अर्थ असनिहित रहता है इसलिये वह उस का विषय नहीं हो सकता' नहीं की जा सकती क्योंकि विकल्प जब अपने स्वभाव के