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[शा. वा. समुच्चय स्त० ४ श्लोक-११७
न, एवं सति विकल्पस्य विशिष्ट विषयत्यावश्यकत्वेऽलीकतदाकारायोगात , सतोऽसदसंस्पर्शित्वात् अन्यथा निर्विकल्पकेऽप्यनाश्वासात निर्विकल्पकप्रामाण्यस्य सविकलो ग्राह्यत्वेन तदप्रामाण्ये तदप्रामाण्यादिति न किञ्चिदेतदिति दिग । एवं तत्तजननस्वभावत्वग्रहो न क्षणिकपक्षे, बोधान्नए इन तराइमवार, गजब रामाननस्वभावत्वसिद्भिरिति प्रघट्टकार्थः । ११७।। बल प्रलोकविषयक होता है तो वह प्रसन्निहितविषयक मो हो सकता है। विकल्प में दृश्य और प्राप्य का जो एकीकरण कहा जाता है उसका मी यही प्रर्थ है कि विकल्प दृश्यविषयक भी होता है और प्राप्यविषयक भी होता है दृश्य और प्राप्य की एकज्ञान विषयता हो उन का एकीकरण है। ऐसा मानने पर यह शंका भी कि-"-विकल्प को बौद्ध मत में विशेषण मात्र विषयक कहा जाता है । अतः उस को दृश्य और प्रोग्यविषयक कहकर विशेष्य विषयक बताना अनुचित हैं."नहीं की जा सकती क्यों कि विकल्प को विशेषणमात्र विधयक कहने का तात्पर्य संनिहित विशेष्य का अग्राहक बताने में ही है। शुक्ति में जहां असत् रजत का ज्ञान होता है वहाँ रजत का बाधग्रह हो जाने पर जो रजतार्थों को प्रवृति नहीं होती है उस का कारण यह है कि उस समय असत्यरजतज्ञान में रजतविशेष्यकरजतत्वप्रकारकत्वामावरूप प्रामाण्यामाच का ज्ञान हो जाने से रजत विशेष्यक रजतत्वप्रकारकत्वरूप प्रामाण्यग्रह नहीं हो पाता। निश्चित प्रामाण्यक रजत ज्ञान हो रजताओं की प्रवृत्ति का हेतु होता है इसलिये सत्यरजतज्ञानस्थल में रजतत्व प्रनारोपित रहता है और असत्यरजतज्ञानस्थल में रजतत्व प्रारोपित रहता है' यह कहकर बौद्ध मत में रजतत्वादि को प्रसत्यता के सिद्धान्त में दोष का उद्धायन नहीं किया जा सकता।'
( विकल्प की अलीकाकारता का असंभव ) तो यह मो ठोक नहीं है क्योंकि उक्त रीति से जब विकल्प को विशिष्ट विषयक मानना प्रायश्यक हो जाता है तो उसे प्रलोक आकार नहीं माना जा सकता क्योंकि विशिष्ट विषयक होने पर वह विशेष्यविषयक होगा हो और विशेष्य अलीक नहीं होता । 'असत् विशेषण के सम्पर्क से विशेष्य मो असत् हो जाता है' यह कहना मी ठीक नहीं है क्योंकि सत् में असत् का सम्बन्ध दुर्घट है। प्रतः विकल्प अलीकाकार नहीं हो सकता। एक ज्ञान को प्रलीकाकार मानने पर ज्ञानात्मना दर्शन में सादृश्य होने से उसके प्रामाण्य में भी अविश्वास हो जायगा । दूसरी बात यह कि निविकल्प का प्रामाण्य सविकल्प से गहीत होता है अतः जब सविकल्प हो अप्रमाण हा तब उससे निर्विकल्प का प्रामाण्य कसे सिद्ध हो सकता है? प्रतः निर्विकल्प के प्रामाण्य और सविकल्प के अप्रामाण्य के विषय में बौद्ध का सम्पूर्ण कथन नियुक्तिक है।
उक्त विचारों से यह निष्कर्ष निकलता है कि ६३ वी कारिका में बौद्ध की ओर से जो यह बात कही गई थी कि-'पद् व्रव्य घटादि का हो जनक इसलिए होता है कि उसमें घटादि जननस्व. भावता है और घटादि मो मदादि से ही इसलिये उत्पन्न होता है कि उसमें मदादिजन्यस्वभावता है। एवं अग्नि व्याप्तिज्ञान पूर्वक धूमज्ञान में ही प्रग्नि-अनुमितिजनन स्वभावता है और अग्नि ध्याप्ति ज्ञानापूर्वक धूमज्ञान में नहीं है...वह बात भी भावमात्र के क्षणिकत्वपक्ष में नहीं बन सकती किन्तु घटावि में मदादि द्रव्य का और अग्निज्ञानादि में बोध का प्रत्यय मानने पर ही सम्भव है।