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[ शा. वा. समुच्चय-स्त०४-श्नो ४४
इसके समर्थन में जो प्रतीत घट और उसके ज्ञान के सम्बन्ध को दृष्टान्त रूपमें प्रस्तुत किया गया यह अनुपयुक्त है। क्योंकि प्रतीलघटके जातकाल में तज्ज्ञानज्ञेयत्व' अर्थात 'तज्ज्ञान के विषय होने की योग्यता धारकत्व' रूप से प्रतीत घट को सत्ता होती है। क्योंकि, तज्ज्ञानज्ञेयत्व अतीतघटके ज्ञानकालमें है और वह प्रतीत घट का पर्याय है । पर्याय प्रौर उसके प्राधारभूत पदार्थ में प्रापेक्षिक ऐक्य होता है, प्रत एव पर्याय के रहने पर पर्यायरूपसे उसका भो अस्तित्व अनिवार्य है। इसी प्रकार दण्ड प्रावि में उत्पन्न होनेवाली घट की कारणता मी इसी लिये सम्भव होती है कि उस समय भी भावी घट अपने दरमाबीन उत्पनिमोग्यासमा म के भयो नियमान होता है । अन्यथा वण्ड के साथ भावि घटका कारणतासम्बन्ध ही नहीं संगत हो सकेगा।
[विषयता ज्ञानस्वरूप है-पूर्वपक्षशंका) इस सम्बन्ध में यदि यह शङ्का को जाय कि-'ज्ञान के साथ घरका विषयता रूप सम्बन्ध होता है और वह विषयता ज्ञानस्वरूप होती है । अत एव उस ज्ञानस्वरूप सम्बन्ध का अस्तित्व ज्ञानोत्पादक सामग्री के प्राधीन होता है, घटादि के प्राधीन नहीं होता। अत एव घटादि के न होने पर भी वह सम्बन्ध उपपन्न हो सकता है । इसी प्रकार द में घटका जो कारणता सम्बन्ध होता है वह मो वण्डस्वरूप होता है। प्रत एव उस सम्बन्ध का भी अस्तित्व दण्डसामग्री के ही द्वारा सम्पन्न होता है, उसके लिये भी घट की अपेक्षा नहीं होती । प्रतः घटके प्रसत्त्व में उस सम्बन्ध का अस्तित्व निर्बाध हो सकता है। यदि यह प्रश्न किया जाय कि ज्ञान के साथ घटका विषयता रूप सम्बन्ध यदि ज्ञान स्वरूप है तो ज्ञान का ज्ञानत्व रूपसे ('ज्ञान' इत्याकारक) ग्रहण होनेपर 'ज्ञानं घटीयं-ज्ञान घटका सम्बन्धो है' इस प्रकार का व्यवहार भी क्यों नहीं होता? एवं दण्ड में रहनेवाली घटको कारणता यदि दण्ड रूप है तो दण्ड का वण्डस्य रूपसे ज्ञान होनेपर घटकारणता भी गहीत हो जाती । तब तो उस समय 'दण्डः घटोय :-दण्ड घर काकारण है' इस प्रकार का व्यवहार क्यों नहीं होता?" तो इसका उत्तर यह है कि उक्त व्यवहारों में घट ज्ञान भी कारण है । प्रतएव घटका ज्ञान न रहने पर शुद्धज्ञानस्वरूप और दण्डस्वरूप का ज्ञान रहने पर भी उक्त व्यवहार नहीं होता ।"
( संबंधमात्र द्वयसापेक्ष है-समाधान ) किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है। क्योंकि, सम्बन्ध दोनों सम्बन्धीयों से निरूपणीय होता है। अर्थात् , किसी सम्बन्ध का ज्ञान तभी होता है जब उसके दोनों सम्बन्धियों का ज्ञान हो । प्रत एव दो पदार्थों के बीच में होनेवाले सम्बन्ध को किसी एक पदार्थ के ही स्वरूप में सोमित नहीं किया जा सकता । यदि सम्बन्ध को सम्बन्धिस्वरूप मानना होगा तो दोनों सम्बन्धियों को हो सम्बन्ध मानना होगा । अतः एक के अमात्र में केवल एक मात्र सम्बन्धी के रहने पर सम्बन्ध का अस्तित्व सम्पन्न नहीं हो सकता। क्योंकि, यदि सम्बन्ध एक सम्बन्धी के स्वरूप में ही परिसमाप्त हो सकता हो तब तो दूसरे सम्बन्धी के प्रज्ञान काल में ओ सम्बन्धनात्मक सम्बन्धी का बोध होगा वह उभय सम्बन्धी के ज्ञानकालमें होनेवाले संसर्गतावगाही बोधकी अपेक्षा विलक्षण न हो सकेगा। क्योंकि, एक सम्बन्धी मात्र मो जब सम्बन्धात्मक हो सकता है तो उसके बोध को भी संसर्गतावगाही होना
। इसी प्रकार प्रतीतपटादि के ज्ञान को प्रतीत घटादि के सर्वथा प्रसत होने पर भी यदि प्रतीतघटाधारक माना जायेगा तो ज्ञान को साकारता में विषय को अपेक्षा न होने से साकार ज्ञानवाद योगाचार बौद्ध के विज्ञानवाद की प्रसक्ति होगी जिसके फलस्वरूपविषय के अस्तित्व का सर्वथा लोप हो जायेगा। इस विषयका विशेष विचार अन्यत्र प्राप्त होगा ॥४४॥