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[ शा० वा समुच्चय स्त० ४ श्लो० ११३
अथाद्यमध्यक्षं वाचकम्मृन्यभावादविकल्पक मेवास्तु, न म्मृतिमहकतेन्द्रियजम्. उत्तरं तु तत् सविकल्पमित्यत्र को दोषः । इति चेत ? न, मृत्युपनीतेऽपि शब्द परिमल इवाऽविषयत्वाद् नयनस्याऽप्रवृत्तेः । न चैवं नामविशिष्टम्याऽग्रहणेऽपि द्रव्यादिविशिष्टग्राहि प्रत्यक्ष सविकल्पमस्तु, बायकासाकादिति वाच्यम् , विशेगा विशेष्यभावस्य वास्तवत्वे दण्ड पुरुषयोरिव प्रतिनियतस्यैव संभवाद 'कदाचिद् दण्डस्यव विशेषणत्वम् , कदाचिच्च पुरुषस्यैव' इति विशेषानुपपत्तः, अर्थक्रियाजनकत्वतत्प्रयोजकत्वापेक्षया प्रधानोपसर्जनभावरूपम्य तम्य कल्पनादोष का उद्भावन कथमपि उचित नहीं है कि विकल्पात्मक ज्ञान को भ्रम मानने पर संपूर्ण ज्ञान भ्रम हो जायेगा प्रत: किसी भी ग्राह्य वस्तु की सिद्धि न होने से प्रमाण-प्रमेय आदि विभाग का उच्छेद हो जायगा।
( सविकल्प को शब्दानुविद्ध अर्थग्राहकता प्रापत्ति ) यदि बौद्ध के उक्त मत के विरुद्ध यह कहा जाय कि-'अर्थ का प्रथम प्रत्यक्ष निविकल्पक हो सकता है क्योंकि उस के पूर्व वाचक शब्द को स्मति न रहने से यह स्मृतिसहकृतेन्द्रिय से अन्य नहीं होता। अतः उस में शब्दानुवेध-प्रर्यतादात्म्येन शम्दभान की सम्भावना नहीं रहती। किन्तु उस के बाद होने वाले प्रत्यक्ष को सविकल्पक शब्दानुबिद्ध प्रर्थवाही मानने में कोई दोष नहीं है'-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि उस के प्रथम प्रत्यक्ष के उत्तरक्षरण में होने वाला हान यदि चक्षजन्य प्रत्यक्षरूप होगा तो शन्द स्मति से उपनोत होने पर भी उस का उस में भान नहीं हो सकता । क्योंकि, शब्द की स्मति शब्द को ज्ञानलक्षणसंनिकर्ष के रूप में शब्द को चक्षु से संनिकृष्ट बनाती है। किन्तु संनिकृष्टमात्र होने से हो कोई अर्थ इन्जियजन्य प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो जाता किन्तु अर्थ जब संनिकृष्ट होता है पोर इन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष के योग्य होता है तमो उस का इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में मान होता है । जैसे पुष्प प्रादि गत मन्ध, पुष्प के साथ चक्षु का संयोग होने पर सयुक्तसमवाय सम्बन्ध से चक्षु संनिकृष्ट तो हो जाता है किन्तु चाक्षुषप्रत्यक्ष के योग्य न होने से अक्षु से गृहीत नहीं होता। उसी प्रकार शब्द भी स्मति द्वारा चा से संनिकृष्ट हो जाने पर भी चक्षु का विषय होने के कारण चक्ष द्वारा गृहोत नहीं हो सकता। अतएव घटादि के चाक्षष प्रत्यक्ष में उस के भान की उपपत्ति नहीं हो सकती।
इस पर यदि यह कहा जाय कि-'चाक्षुषाविप्रत्यक्ष द्वारा नाम विशिष्ट का ग्रहरण भले न हो, किन्तु द्रव्य-गुण-क्रिया-जाति प्रादि से विशिष्ट का ग्रहण तो हो सकता है अत एव सविकल्पक प्रत्यक्ष से प्रर्थ में व्यवैशिष्टयमादि को सिद्धि मानी जा सकती है, क्योंकि द्रव्यादि विशिष्ट ग्राही सधिकल्पक प्रत्यक्ष की सत्ता में कोई बाधक नहीं है।'-तो यह भी ठीक नहीं है. क्योंकि प्रथं के साथ न्यादि का विशेषणविशेष्यभाव यदि काल्पनिक हो तो उस से प्रथं को द्रव्यादिविशिष्टता नहीं सिद्ध हो सकती
और यदि वास्तव हो तो जैसे दण्ड-पुरुष रूप वास्तव अर्थ स्थल में दण्ड का दण्डरूप में हो एवं पुरुष का पुरुष रूप में ही नियत ग्रहण होता है, उसी प्रकार विशेषण-विशेष्य भाव का भी नियत ही ग्रहरण होना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर तो "कभी दण्ड हो विशेषण होता है-जैसे 'दण्डी पुरुषः' इत्यादि पद्धिकाल में, पौर कभी पुरूष हो विशेषण होता है जैसे 'पुरुषे व:' अथवा 'पुरूषवान दण्ड: इस बुद्धिकाल में'-इस बात को उपपत्ति न हो सकेगी। विशेषण विशेष्य भाव वास्तविक होने पर वण्ड का सदा विशेषण हो होना और पुरुष का सदा विशेष्य ही होना