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tro no टीका और हिन्दी विवेचना ]
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युक्त्यन्तरमाह-अवस्योत्पत्यभावाय अत्यामातुकस्योपस्ययोगाच्च, अन्यथा अतिप्र सङ्गन्नः = तद्वत् तदन्यभावापत्तेः ॥ ११६ ॥ न चास्माद् विकल्पादनित्यत्वसिद्धिरित्युपचयमाह - मूलम्-अन्यादृशपदार्थेभ्यः स्वयमन्यादृशोऽप्ययम् ।
यथेष्टस्ततो नास्मात् तत्राऽसंदिग्घनिश्चयः ||११७ || अन्याद्दशपदार्थेभ्यः प्रवित्यादिरूपेभ्य आलम्बनभूतेभ्यः स्वयम् = आत्मना अर्थ= विकल्पः अन्यादृशोऽपि नित्यत्वादिग्रहरूपोऽपि यतश्चेष्टः अङ्गीकृतः, ततो नास्मात् = अधिकृत विकल्पात् अप्रत्ययितात् सत्र - अनित्यत्वादी असंदिग्धनिश्वयः अप्रामाण्यज्ञानास्कन्दितत्वात् ।
अपाली कवियत्ररूपाऽप्रामाण्यज्ञानेऽपि तत्र दृश्य-विकल्प्ययोरर्थयोरेकी करणात् तदभाववति तदवगाहित्वरूपाऽप्रामाण्यज्ञानाभावाद् न दोष इति चेत् ? न, रजतत्वारोपस्यासस्य[ वलनिरपेक्ष उत्पत्ति का असंभव ]
नश्वरत्वग्राही विकल्प को श्रभ्रान्त मानने पर हमने विभिन्न ज्ञानों में बोध के अन्य की ओ बात कही है वह न्याय पूर्वक उक्तरीति से सिद्ध हो जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न ज्ञानों में बोध के अन्य को सिद्ध करने वाली एक धौर भो युक्ति है। वह यह है कि मलोत्पत्ति प्रर्थात् कार्यात्मना परिणमनशील हेतु निरपेक्ष उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यदि कार्य की उत्पत्ति परिणमनशील हेतु के बिना भी मानी जायगी सो, अर्थात् ऐसे हेतु से भी मानी जायगी जिसका कार्यात्मना परिणत होने का स्वभाव नहीं है सो हेतु विशेष से कार्य विशेष को उत्पत्ति न होकर समस्त अन्य कार्यों को उत्पत्ति का भी प्रसंग होगा। क्योंकि हेतु को श्रतथाभाविता यानी कार्यात्मना परिणमनस्वभाव शून्यता सभी कार्यों के लिये, प्रर्थात् सभी कार्यों के प्रति समान है।
११७ य कारिका में अनित्यत्वप्राही विकल्प से भी प्रनित्यत्व का निश्चय नहीं हो सकताइस बात का प्रतिपादन किया गया है
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[ अनित्यत्व का प्रसंदिग्धनिश्चय प्रसंभवित ]
जैसे अनित्यपदार्थरूप प्रालम्बन से अनित्यत्वप्राही विकल्प होता है, उसी प्रकार उन्हों आलम्बनों से बासनावश नित्यत्यग्राही विकल्प भी होता है यह बात बौद्धमत में मान्य है। इसलिये अनिस्वग्राही विकल्प में प्रप्रामाण्यज्ञान हो जाने से उससे अनित्यत्वादि का प्रसंदिग्ध अप्रामाण्यज्ञानानास्कन्दिल निश्रय नहीं हो सकता
यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि - वाशनावश उत्पन्न होने वाला विकल्प निश्यत्ववि विशिष्ट प्रलोक प्रथं विषयक होता है अतः उस में प्रलोकविषयकत्वरूप प्रप्रामाण्य का ज्ञान होने पर श्री तवभाववान में तदवगाहित्वरूप प्रप्रामाण्य का ज्ञान नहीं हो सकता। क्योंकि विकल्प में दृश्य और विकल्प्य अर्थी का अर्थात् वास्तव और प्रवास्तव अर्थों का एकीकरण होता है इस प्रकार अनित्य - नित्यं का अभिनतया ग्रहण होने से धर्मों में अनित्यत्वाभाव का ग्रहण नहीं हो सकता । उसके विना अनित्यत्वाभाववाले में मनित्यत्वावगाहित्व रूप अप्रामाण्य का ज्ञान नहीं हो सकता । श्रतः प्रमित्य